Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit

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Page 103
________________ ( १०२) अनिवर्त भाव दशमो सूक्षमलोभ, एकादशमो सु उपसंत मोह वंचहै । द्वादशमो क्षीन मोह तेरहों सजोगी जिन, चौदहों अजोगी जाकी थिति अंक पंच है ॥ ७९ ॥ दोहा-वरने सबगुन थानके, नाम चतुर्दश सार । __अब वरनों मिथ्यातके, भेद पंच परकार ॥ ८॥ सवैया इकतीसा-प्रथम एकंत नाम मिथ्यात अभिग्रहीक, दूजो विपरित अभिनिवेसिक गोत है। तीजो विनै मिथ्यात अनाभिग्रह नाम जाको, चौथो संसे जहां चित भोरकोसो पोत है ॥ पंचमो अज्ञान अनाभोगिक गहलरूप, जाके उदे चेतन अचेतनसो होत है । ए पांचो मिथ्यात भ्रमावे जीवको.जगतमें, इन्हके विनास समकितको उदोत है ॥ ८१ ॥ . दोहा-जो इकत नय पक्ष गहि, छके करावे दक्ष । . सो इकंत वादी पुरुष, मृषावंत परतक्ष ॥ ८२॥ ग्रंथ उकति पथ उक्षपे, थापे कुमत सुकीयः। सुजस हेत गुरुता आहे, सो विपरीती जीय ॥ ८३ ॥ देव कुदेव सुगुरु कुगुरु, गिनें समान जु कोइ । नमेंभगतियों सवनिको,विनयमिथ्यातीसोइ ॥ ८४॥ जो नाना विकलप गहे, रहे 'हिए हैरान । थिर व्हे तत्व न सबहे, सोजिय संसयवान ॥ ८५॥ जाको तन दुखदहलसों, सुरतिहोति नहिरंच। गहलरूप वरते सदा, सो अज्ञान तिरयंच ॥८६॥ पंचभेद मिथ्यातके, कहे जिनागम जोइ। - सादिअनादि सरूपअव, कहों अवस्थादोइ ॥ ८७॥ ॥

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