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( ११५) गर नवल सुख सागरकी सीम है ॥ संवर को रूपधरे साधे शिवराह ऐसो ज्ञानी पातसाह ताकों मेरी तस लीम है ॥ ८५ ॥ इतिश्रीसमयसार नाटक पालावबोधरूप समाप्त ।
चौपाई। भयो ग्रंथ संपूरन भाषा । बरनी गुनथानककी साषा ॥ वरनन और कहांलों कहिये । जथासकतिकहिचुपंव्हेरहिये। लिहए ऊरन ग्रंथ उदधिका । ज्योज्योंकहियेत्योंत्योंअधिका। ताते नाटक अगम अपारा । अलपकबीसुरकीमतिधारा८७ दोहा-समयसारनाटक अकथ,कविकीमतिलघुहाई।
तातें कहत बनारसी, पूरन कथे न कोइ ॥८॥ सवैया इकतीसा-जैसे कोउ एकाकी सुभट पराक्रम करि, जीते केही भांति चक्री कटक सों लरनो। जैसे कोउ परविन तारू भुज भारु नर, तरे केले स्वयंभूरमन सिंधु तरनो ॥ जैसे कोउ उद्दिमी उछाह मनमांहि धरे, करे केसें कारज विधाता को सो करनो। तैसे तुच्छ मती मोरी तामें कविकला थोरी, नाटक अपार में कहां लों याहि वरनो ॥ ८९ ॥
अथ जीव महिमा कथन। सवैया इकतीसा-जैसे वटवृक्ष एक तामें फल हैं अ-: नेक फल फल बहू वीज बीज बीज क्ट है। क्टमाहि. फल फलमांहि वीज तामे. बट कीजे जो विचार तो .. तता अघट है ॥ तैसे एक सत्ता में अनंत गुण प्रजा