Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit

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Page 119
________________ ( ११८ ) जुधा, हाड़ही के थंभा जंघा कहे रंभा तरु है । यही झूठी जुगति बनावै कहावै कवि एते पर कहे हम सारदाको वरु है ॥ ३ ॥ चौपाई | मिथ्या वंत कुकवि जे प्रानी । मिथ्यातिनकी भापितवानी। मिथ्यावंत सुकवि जो होई । वचनप्रवान करेसच कोई दोहा - बचन प्रवान करे सुकवि, पुरुष हृदे परवान | दोऊ अंग प्रवान जो, सोहै, सहज सुजान ॥ अथ नाटक समयसार व्यवस्था कथन । चौपाई | अव यह बात कहौं है जैसें । नाटक भाषा भयो सु ऐसे कुंद कुंद मुनि मूल उधरता । अमृतचंद टीका के करता ॥६॥ समयसारनाटक सुख दानी । टीका सहित संसकृतवानी ॥ पंडित पढ़े दृढ़मती वूके । अलपमतीको अरथ नसू. ७ पांड़े राजमल्ल जिन धर्मी । समयसार नाटक के मम ॥ तिन्ह गरंथ की टीका कीनी । बालाबोध मुगमकरिदीनी | ८| इहि विधिबोध वचनिकाफैली । समौपाइ अध्यातम सेली ॥ प्रकटी जंगतमांहि जिनवानी । घरघरनाटक कथा बखानी९ नगर आगरा मांहि विख्याता । कारन पाइ भये बहु ज्ञाता ॥ पंच पुरुषअतिनिपुन प्रवीने । निशिदिनज्ञानकथारसभीने १० नेहा - रूपचंद पंडित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम | तृतिय भगौती दास नर, कौरपालगुनधाम ॥ ११ ॥ धर्मदास ए पंच जन, मिलि बेसें इक ठौरा दो. परमारथं चरचा करे, इन्हके कथा न और ॥ १२ ॥ "& 13

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