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( ११७ ) चौपाई |
अब सुन कुकवि कहूं है जैसा । अपराधीहिय अंध अनैसा ॥ मृषा भावरसवरने हितसों । नईउकतिनहिंउपजेचितसों ९७ व्याति लाभ पूजा मन आने । परमारथ पथ भेद न जाने ॥ बानी जीव एक करि बूके । जाकोचितजड़ग्रंथिनसूझे ९८ बानी लीन भयो जग डोले । बानी ममतात्यागि न बोले ॥ है अनादि बानी जगमाहीं । कुकविबातयहसमुझेनाहीं ९९ 'अथ वानी व्यवस्था कथन ।
सवैया इकतीसा - जैसे काहू देस में सलिल धार कारंज की, नदी लोंनिकसि फिरि नदी में समानी है । नगर में ठौर ठौर फैली रही हूं ओर, जाके ढिग दहे सोई कहे मेरो पानी है । त्यों ही घट सदन सदन में अनादि ब्रह्म, बदन बदन में अनादिहीं की बाणी है । करम कलोल सों उसास की बयारि बाजे, तासो कहे मेरी धुनि ऐसो मूढ़ प्राणी है ॥ ७०० ॥
दोहा - ऐसे मूढ़ कुकवि कुधी, गहे मृषा पथ दौर ।
रहे मगन अभिमान में, कहे और की और ॥ १ ॥ वस्तु सरूप लखे नहीं, बाहिन दृष्टि प्रमान । मृषा बिलास बिलोकके, करे मृषा गुनज्ञान ॥ २॥ अथ मृषा गुनज्ञान यथा ।
सवैया इकतीसा -मांस की गरंथि कुच कंचन कलस कहे, कहे सुख चंद जो सलेखमाको घरुहै । हाड़के दश आहि हीरा मोती कहे ताहि, मांस के अधर ओठ.. बिंब फर्रु है !! हाइ दंभ भुजा कहै कौल नाल -
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