Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit
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( ११६ ) कबहूं नाटकरस सुने, कबहुं और सिद्धांत । कबहूं बिंग बनाइके, कहे बोध विर तांत ॥ १३ ॥
___ अथ विंगयथा। हा-चितचकारकरुधरमधरु,सुमतिभौतीदास ।
चतुरभाव थिरता भये, रूपचन्द परगास ॥१४॥ साहिविधिज्ञान प्रकटभयो, नगरमागरेमाहि। का देस महिबिस्तन्यो, मृषादेशमहिनाहि ॥१५॥
. चौपाई। ... रजनबाणी फैली। लखे न सोजाकी मतिमैली॥ तबोध उतपाता। सोततकाललखे यहबाता१६
पर संजन-जिन बसे, घटघट अंतर जैन।
त मदिराके पानसों, मतवाला समुझेनं ॥ १७॥ ।।
. चौपाई। वहुत बढ़ाउ कहांलों कीजें । कारज रूपबात कहिलीजें। नगर आगरामांहि विख्याता । बनारसीनामेलघुज्ञाशा॥१८॥ त कवित कलां चतुराई । कृपा करे ए पंचो भाई सुपरपंच रहित हिय खोले। ते बनारसीसोहसिबोले : , नाटक समैसार हित जीका । सुगमरूप राजमली/ कवितः बद्ध रचना जो होई। भाषाग्रंथ पढ़े सबको तब बनारसी मनमाहि आनी । कीजे तो प्रकटे जिनके
पुरुष की आज्ञा लीनी । कवितबंधकीरचना सोरह सें- तिरीनवे "बीते । आसुमाससितपक्ष वितीते : तिथि तेरसि रविवार प्रबीना। तादिन ग्रंथसमापतकीना माहा सुखनिधानसकर्वधनर.सानि हिकिरान।।

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