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अनंत इहबिधि कही, मिले न काहू कोइ । जो सब नय साधन करे, स्यादवाद है सोइ ॥ ९३ ॥ स्थादवाद अधिकार अब, कहीं जैनकोमूल । जाके जाने जगतजन, लहै जगत जलकूल ॥ ९४ ॥ सवैया इकतीसा - शिष्य कहे स्वामी जीब स्वाधीन के पराधीन, जीव एक है किधौ अनेक मानि लीजिये । जीव हे सदी किधौ नाहि है जगतमांहि, जीव अवि नस्वर के नस्वर कही कीजिये ॥ सतगुरु कहे जीव है सदीव निजाधीन, एक अविस्वर दरव दृष्टि दीजिये । जीव पराधीन छिन भंगुर अनेक रूप, नांहि तहां जहां परजे प्रवान कीजिए ॥ ६५ ॥
सवैया इकतीसा - दर्व खेत्र काल भाव चारो भेद वस्तुही में, अपने चतुष्क बस्तु अस्तिरूप मानियें । परके चतुष्क वस्तु नासति नियत अंग, ताको भेद दर्ब परजाय मध्य जानिये ॥ दरवतो वस्तु खेत्र सत्ता भूमिकाल चाल, सुभाव सहज मूल सकति वखानिये । याही भांती परविकलप बुद्धि कलपना, विवहार दृष्टि अंशभेद परवानिये ॥ ९६ ॥ दोहा - है नाही नाही सु है, है है नाही नाहि ।
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यह सरवंगी नयधनी, सबमाने सब मांहि ॥ ९७ ॥ सवैया इकतीसा - ज्ञानको कारन ज्ञेय आतमा त्रिलोक मेय, ज्ञेयंसों अनेक ज्ञान मेल ज्ञेय छाही है । जोलों ज्ञेय तोलों ज्ञान सर्व दर्ब में विनाज्ञेय छेत्र ज्ञानजीव वस्तु नांही है || देह नसे जीव नसें देह उपजत लसें, आमा अचेतन है, सत्ता असमांही है । जीव छिन भंगुर अज्ञायक सरूपी ज्ञान, ऐसी ऐसी एकंत अवस्था मूढ पाही है ॥ ९८ ॥