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(८८) सवैया इकतीसा-कोउ मूढ कहै जैसे प्रथम समारिभीति, पीछे ताके उपर सु चित्र आछो लेखिये । तैसे मूल कारन प्रगट घट पट जैसो, तैसो तहां ज्ञान रूप कारज विशेषिये। ज्ञानी कहे जैसी वस्तु तैसोई सुभाव ताको, ताते ज्ञान ज्ञेय भिन्न भिन्न पद पोखिये । कारन कारज दोउ एकहीमें निहचे पें,तेरो मत साचो विवहार दृष्टि देखिये ॥ ९९॥
सवैया इकतीसा-कोउ मिथ्यामति लोकालोक व्यापि जान मानि, समुझे त्रिलोक पिंड आतम दरव है। याहितें सुछंद भयौ डोले मुख हू न बोले, कहे याजगतमें हमारोई खरब है । तासों ज्ञाता कहे जीव जमतसों भिन्न पै,जगत को विकासी तोहि याहीतें गरवहै ।जोवस्तुसो वस्तु पररूप सों निराली सदा,निहचे प्रमान स्यादवादमें सरवहै ॥ ५०० ॥ __सवैया इकतीसा-कोउ पशु जानकी अनन्त विचित्राई देखे, ज्ञेय को आकार नाना रूप विसतन्यो है । ताहीकों विचारी कहे ज्ञान की अनेक सत्ता, गहिके एकन्त पक्ष लोकनि सो लन्यो है ॥ ताको भ्रम भंज को ज्ञानवन्त कहे ज्ञान, अगम अगाध निराबाध रस भयो है। ज्ञायक सु भाई परजाई सो अनेक भयो, जद्यपि तथापि एकतासों नहिं टग्यो है ॥ १॥
सवैया इकतीसा-कोउ कुधी कहे ज्ञानमांहि ज्ञेय को अंकार, प्रति भासि रह्यो हे कलंक ताहि धोइए । जब ध्यान जल सों पखारि के धवल कीजे, सब निराकार शुद्ध ज्ञान मई होइए । तासों स्याद्वादी कहे ज्ञान को सुभाव यहे, ज्ञेय को आकार वस्तु नाहि कहा खोइए । जैसे