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न अस कि झांई । दासि किए बिनु लाताने मारत, ऐसि अनीति न कीजे गुसांई ॥ २२ ॥ -
दोहा - माया छाया एक हैं, घटे बढ़े छिनमांहि ।::
'इन्हकी संगति जे लगे, तिनहिंकहूं सुखनांहि ॥ २३ ॥ " सवैया तेईसा - लोगनिसों कछु नांतों न तेरों, न तोसों कछू इह लोगों नांतो । ए तो रहे रमि स्वार्थ के रस, तूं परमारथ के रस मातो ॥ ए तनः सों तन में तन से जड़, चेतन तूं तनसों नित होतो । होहि सुखी अपनो बल तोरिकें, रागविराग विरोधकों तांतों ॥ २४ ॥
सोरठा - जे दुरबुद्धी जीव, ते उतंग पदवी चहे ।
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जे समरसी सदीव, तिन्हको कळू न चाहिये ॥ २५॥ सवैया इकतीसा - हांसी में विषाद वसे विद्या में विवाद वसे, कायामें मरन गुरुवत्र्तन में हीनता । सुचि में गिलान बसे प्रापति में हानि बसें, जैसें हारि सुंदर दशा में छबि छीनता || रोग बसे भोग में संयोग में वियोग बसें, गुन में गरवं बसे सेवा मांहि दीनता । और जगरीति जेती गर्वित असाता सेती, सातांकी सहेली है अकेली उदासीनता ॥ २६ ॥ दोहा-जिंहिउतंगचढ़ि फिरिपतन, नहिंउतंगवहिकूप ।
जिहिसुख अंतरभयं बसे, सो सुख है दुखरूप ॥ २७ ॥ जो विलसे सुख संपदा, गये ताहि दुख होइ । जोधरती बहु त्रिणवती, जरे अगनिसों सोइ ॥ २८ ॥ इति गुरुः उपदेश समाप्तः ।
सपदमांहि सतगुरु कहे, प्रगटरूप जिन धर्म |.
सुनत विचक्षण सदहै, मूढ़ न जाने मर्म ॥ २९ ॥
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