Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ दोहा-ज्ञानवंत अपनी कथा, कहै आपसों आप । . . ___ मैं मिथ्यात दसाविषे, कीने बहुविधि पाप ॥३८॥ सवैया इकतीसा-हिरदे हमारे महा मोहकी विकलंताही. ताते हम करुना न कीनी जीव घातकी । आप पाप कीने ओरनकों उपदेश दीने, हूती अनमोदना हमारे याही वातकी ।। मन वच कायमें मगन है कमाए कर्म, धाए भ्रम जालमें कहाए हम पातकी । ज्ञानके उदे भए हमारी दशा ऐसी भई, जेसी भान भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ ३९ ॥ सवैया इकतीसा-ज्ञान भान भासत प्रवान ज्ञानवान कहे, करुना निधान अमलान मेरो रूप है । कालसों अतीत कर्म चालसों अभीत जोग, जालसों अजीत जाकी महिमा अनूप है ॥ मोहको विलास यह जगतको वासमें तो,जगतसों अन्य पाप पुन्य अंधकूप है । पाप किन कियो कौन करे करिहै स कोन, क्रियाको विचारलुपनेकी धौरधूपहै ४०॥ दोहा-मैं यों कोनो यौं करों, अब यह मेरो काम । मन वच कायामें वसे, ए मिथ्या परिनाम ॥ ११ ॥ मनवच काया करमफल, करमदशा जडशंग। दरवित पुदल पिंडमें, भावित भरम तरंग ॥४२॥ तांते भावित धरमसो, करम सुभाव अपृठ। कोंन करावे को करे, कोसर लहे सब जूठ ॥४३ ॥ करनी हितहरनी सदा,मुकति वितरनीनांहि । गनी बंध पद्धति विषे, सनी महा दुख मांहि ॥४४॥ सवैया इकतीसा-करनी की धरनी में महा मोह राजा

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122