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( ७८) याकेनिसिदिनजीवो, वाकेनिसिदिनहारि ॥ २८ ॥ जाके उर कुबजा बसे, सोई अलख अजान । जाकै हिरदे राधिका, सो बुधसम्यकवान ॥ २६ ॥ सवैयाइकतीसा - जहांशुद्ध ज्ञानकी कलाउद्योत दीसे तहां, शुद्ध परबान शुद्ध चारित्रको अंस है । ता कारन ज्ञानी सव जाने ज्ञेय वस्तु मर्म, वैराग विलास धर्म बाको सरवंस है ॥ राग दोष मोहकी दसासों भिन्न रहे याते, सर्वथा त्रिकाल कर्मजालको विध्वंस है । निरूपाधि आतम समाधिमें विराजे ताते, कहिये प्रगट घूरन परमहंस है ॥ ३० ॥
दोहा - ज्ञायक भाव जहां तहां, शुद्ध वरनकी चाल ।
ताते ज्ञान विराग मल, सिवसाधे समकाल ॥ ३१ ॥ यथा अंधके कंध परि, चढ़े पंगु नर कोइ | वाके दृग वा चरण, होहिपथिकमिलिदोइ ॥ ३२ ॥ जहां ज्ञान किरिया मिले, तहां मोक्षमग सोइ । बह जाने पदको मरम, वह पद में थिरहोइ ॥ ३३ ॥ ज्ञान जीवकी सजगता, करम जीवकी भूल । ज्ञान मोक्ष अंकूर है, करम जगतको मूल ॥ ३४ ॥ ज्ञान चेतनाके जगे, प्रगटे केबल राम ।
कर्म चेतनायें वसे, कर्म बंध परिनाम ॥ ३५ ॥ चौपाई |
जबलग ज्ञान चेतना भारी । तबलगु जीव विकल संसारी ॥ जबघट ज्ञान चेतना जागी । तबसम किती सहज वैरागी ॥ ३६ ॥ सिद्ध समान रूप निज जाने । पर संजोग भाव परमाने ॥ - शुद्धतम अनुभौ अभ्यासे । त्रिविधकरमकी ममतानासे ॥३७॥
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