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बाकी कहा उबन्यो जु कारज नवीनो है । संग त्यागि अंग त्यागि वचन तरंग त्यागि, मन त्यागि बुद्धि त्यागि आपा शुद्ध कीन है ॥ ५७ ॥
दोहा - शुद्ध ज्ञानके देह नहिं, मुद्रा भेषन कोइ । ताते कारन मोखको, दरवलिंगि नहिहोइ ॥ ५८ ॥ द्रव्य लिंग न्यारो प्रगट, कला वचन विन्यान | अष्टमहारिधि अष्टसिधि, एऊ होहि न ज्ञान ॥ ५९ ॥ सवैया इकतीसा - भेषमें न ज्ञान नहि ज्ञानगुरु वर्त्तनमें, मंत्र तंत्र तंत्रमें न ज्ञानकी कहानी है । ग्रंथमें न ज्ञान नहिं ज्ञान कवि चातुरी में, वातनिमें ज्ञान नहीं ज्ञान कहा वानी है ॥ तातें भेष गुरुता कवित्त ग्रंथ मंत्र बात, इनतें अतीत ज्ञान चेतना निसानीहै। ज्ञानहीमें ज्ञाननही ज्ञान ओरठोर कहू, जाके घट ज्ञान सोइ ज्ञानको निदानी है ॥ ६० ॥
सवैया इकतीसा - भेष धरे लोगनिकों बच सो धरम ठग, गुरुलो कहावे गुरुबाई जाते चहियें | मंत्र तंत्र साधक कहावे गुनी जादूगर, पंडित कहांवे पंडिताई जामें लहिये ॥ कवित्तकी कला में प्रवीन सो कहावे कवि, बात कही जाने सो पवारगीर कहिये । एतो सब विषेके भिखारी माया धारी जीव, इन्हकों विलोकिकेँ दयालरूप रहिये ॥ ६१ ॥ दोहा - जो दयालता भाव सो, प्रगट ज्ञानको अंग ।
पें तथापि अनुभौ दशा, वरतै विगत तरंग ॥ ६२ ॥ दरशन ज्ञानचरण दशा, करे एक जो कोइ | थिर व्है साधे मोखमग, सुधी अनुभवी सोइ ॥ ६३ ॥