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(७६) ज्योज्योंपुग्गल वलकरे, धरिधरि कर्मज भेष। राग दोषको परिलमन, त्यो त्यो होइ विशेष ॥ ११ ॥ इहविधि जो विपरीतिपख, गहे सहहे कोइ । सो नर राग विरोधलों, कचहूं भिन्नन होइ ॥१२॥ सुगुरु कहै जगमें रहे, पुग्गल संग सदीव । सहज शुद्ध परिनमनको, औसर लहेन जीव ॥ १३॥ तात चिदभावन विष, समरथ चेतन राउ। राग विरोध सिथ्यातमें सम्यक सिवभाउ ॥१४॥ ज्यों दीपक रजनीसमै, चिहदिसिकरे उदोत। प्रगटे घट पट रूपमें, घट पट रूप न होत ॥१५॥ त्यों सु ज्ञान जाने सकल, ज्ञेय वस्तुको मर्म । ज्ञेयाकृति परिनमनपे, तजै न आतम धर्म ॥१६॥ ज्ञानधर्म अविचल सदा, गहे विकार न कोइ। राग विरोध विमोहमय, कबहूं भूलि न होई ॥ १७ ॥ ऐसी महिमा ज्ञानकी, निहचै है घट मांहि । मूरख मिथ्या दृष्टिसों, सहज विलोके नांहि ॥१८॥ परसुभाव में मगन है, ठाने राग विरोध । धरै परिग्रह धारना, करे न आतम सोध ॥ १९॥
चौपाई। मूरख के घट दुरमति भासी । पंडितहिए सुमति परगासी॥ दुरमति कुबजा करमकमावे । सुमतिराधिकारामरमाव॥२०॥ दोहा-कुबजा कारी कुबरी, करे जगत में खेद । - अलख अराधे राधिका, जाने निजपर भेद ॥२१॥ सवैया इकतीसा-कुटिल कुरूप अंग लगीहै पराए संग,