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गहति है ॥ शुद्ध वस्तु शुद्ध परजाय रूप परिनमै, सत्ता परवान मांहि ढाहे न ढहति है । सो तो औररूप कवहो न होइ सरबथा, हिचे अनादि जिन बानी यों कहति है ॥ ६ ॥
सवैया तेईसा - राग विरोध उदे तवलों जवलों यह जीव मृषामग धावे । ज्ञान जग्यो जव चेतनको तव कर्म दशा पररूप कहावे ॥ कर्म विलेछि करे अनुभो तब मोह मियात प्रवेश न पावे | मोह गये उपजे सुख केवल सिद्ध भयो जगमांहि न आवे ॥ ७ ॥
छप्पय छन्द - जीव करम संयोग, सहज मिथ्यात रूप घर | राग दोष परिनति, प्रभाव जाने न आपपर ॥ तम मिथ्यात मिटिगयो, भयो समकित उदोत सशि । राग दोष कछु वस्तु नाहि छिनु माहि गये नसि ॥ अनुभो - भ्यासि सुखराशिरमि, भयो निपुन तारन तरन । पूरन प्रकाश निहचलि निरखि, वनारसी बंदत चरन ॥ ८ ॥
सवैया इकतीसा - कोउ शिष्य कहे स्वामी राग दोष परिनाम, ताको मूल प्रेरक कहहु तुम कोन है । पुग्गल करम जोग किधों इन्द्रिनिको भोग, किधों धन कधों परिजन किधों भोन है | गुरु कहे छहों दर्व अपने अपनेरूप, 'सबको सदा सहाई परीनोन है । कोउ दर्द काहु को न प्रेरक कदाचि ताते, राग दोष मोह मृषा मदिरा अचोन है ॥ ९ ॥
दोहा - कोऊ मूरख यों कहै, राग दोष परिनाम ।
पुगलकी जोगवरी, वरते आतम राम ॥ १० ॥