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( ७३ ) प्रवान सूक्षम सुभाउ,काल कीसी ढाल परिनाम चक्रगति है । याही भांति मातम दरवके अनेक अंग,एक माने एक कों न माने सो कुमति है। टेक डारि एकमें अनेक खोजे सो सुबुद्धि, खोजी जीवे वादी मरे साची कहवतिहै॥९३॥
सवैया इकतीसा-एकमें अनेक है अनेकही में एकहै सु, एक न अनेक कछु कह्यो न परतु है । करता अकरता है भोगता अभोगता है, उपजे न उपजिति मूए न मरतु है। बोलत विचारत न बोले न विचारे कछु, भेषको न भाजन पै भेखसो धरत है। ऐसो प्रभु चेतन अचेतन की संगती सो, उलट पलट नट वाजी सी करतु है ॥ ९ ॥ दोहा-नटबाजी विकलपदसा, नाही अनुभौ जोग ।
केवल अनुभौ करनको,निरविकलप उपयोग ॥ ९५॥ सवैया इकतीसा जैसे काहु चतुर संवारी हे मुगतमाल, मालाकी क्रियामें नाना भांतिको विज्ञान है । क्रियाको वि. कलप न देखे पहिरन वालो, मोतीन की शोभमें मगन सुख वान है ॥ तैसें न करे न भुजे अथवा करे सु भुजे, ओर करे
ओर भुजे सव नै प्रधान है । यद्यपि तथापि विकलप विधि त्याग जोग, निरविकलप अनुभो अमृत पानहै ॥ ९६ ॥ दोहा-दरव करम करता अलख,यहुविवहार कहाउ।
निहचे जोजे सोदरच, तैसो ताको भाउ ॥९७॥ सवैया इकतीसा-ज्ञानको सहज ज्ञेयाकाररूप परिनमे, यद्यपि तथापि ज्ञान ज्ञानरूप कह्यो है । क्षेयजय रूप यों अनादिहीकी मरजाद, काहु वस्तु काहुको सुभाउनहि गह्यो है ॥ एते परि कोउ मिथ्या मति कहे ज्ञेयकार, प्रति भा.