________________
स्तु जाने
ज
गव, जीव
होइ॥ ४०
(७४) सनिलों ज्ञान अशुद्ध व्है रह्यो है । याहि दुरबुद्धिसों विकल भयोडोलत है, समुझे न धरमयों भर्ममाहि वह्योहै ॥ ९८॥ . .. . चौपाई।। सकल वस्तु जगमें असुहाई । वस्तु वस्तुसों सिले न काई ॥ जीव वस्तु जाने जग जेती। सोऊ भिन्न रहे सबसेती९९॥ दोहा-करम करै फल भोगवे, जीव अज्ञानी कोइ।। . . यहकथनी व्यवहारकी, वस्तु स्वरूप न होइ॥ ४०॥
कवित्त छंद-आकारज्ञानकी परिनति, पैं वह ज्ञान ज्ञेय लहि होइ । ज्ञेय रूप षट दरव भिन्न पद, ज्ञानरूप पातम पदसोइ ॥ जाने भेद भाउ सुविचक्षनगुन लक्षन सम्यक ' दृग जोइ । मूरख कहे ज्ञान महि आकृति, प्रगट कलंक लखे नाहि कोइ ॥ १ ॥
चौपाई। निराकार जो ब्रह्म कहावे । सो साकार नाम क्यों पावे ॥ क्षेयाकार जान जब ताई। पूरन ब्रह्म नाहि तवताई ॥२॥ जेयाकार ब्रह्म मल माने । नास करनको उदिम ठाने । वस्तु सुभाउमिटे नहिक्योंही। ताते खेद करे सठयोंही॥३॥ दाहा-मूढ मरम जाने नही, गहे इकांत कुपक्ष। ..
स्यादवाद सरबंग में, माने दक्ष प्रतक्ष ॥४॥ : शुद्ध दरब अनुभौकरे, शुद्ध दृष्टि घट मांहि।
ताते सम्यकदन्तनर, सहज उछेदक नाहि ॥ ५॥ - सवैया इकतीसा-जैसें चन्दकिरन प्रगटि भूमि सेतकरे, . भूमि सीत होति सदा जोतिसी रहति है । तैसें ज्ञान स.. कति प्रकासे हेय उपादेय, ज्ञेयाकार दीसे पेन ज्ञेयकों ग