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(२३) एक पक्ष सा अबंध सदा, दोउ पक्ष अपने अनादि धरे इन ही ॥ कोउ कहै समल विमल रूप कोउ काह, चिदानन्द तैसोई वखान्यो जैसा जिनहीं । वंध्यो मानै खुल्यो माने दुहुनको भेद जाने, सोई ज्ञानवन्त जीवतत्व पायो तिनही २५ ___ सर्वया इकतीसा-प्रथम निरत जय दुजो विवहार नय दुहुको फलायत अनंत भेद फल है । उओं २ नए फले त्यों त्या मनके कलोल फलें, चंचल सुभाय लोकालोक लो उछले हैं। ऐसी नय कन ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीव समर सी भये एकतासों नहीं टले है । महा मोह नासे शुद्ध भनुभौ अभ्यास निज, बल परगाले सुखरासि माहिं रले हैं।॥२६॥ - सवैचा इकतीसा-जैसे काह याजीगर चौहटे वजाइबोल, नानारूप धरीके भगल विद्या ठानी है । तेले में अनादिको मिथ्यात के तरंगनिसों भरम में धाइ बहुलाइ निजम्मानी है ॥ अव ज्ञानाला जागी भरमकी दृष्टि भागी, अपनी पराई सबलों जु पहिचानी है।जाके उदेहोत परवान ऐली भांति भई. निहचे हमारी ज्योति सोई हम जानी है ॥२७॥ ___ सबैया इकतीसा-जैसै महा रतनकी ज्योतिमें लहरि उठे, जलकी तरंग जैसे लीनहोइ जलमें। तस गुजआतम दरचपरजाय करी, उपजे बिनले विद रहे जिन थल में ॥ ऐसे अविकलपी अजलपी आनंद रूबी, अनादि अनंत गहिलीजे एक पलमें । ताको अनुभव कीजे परम पिऊप पीजे, बंध को क्लिास डारि दीजे पुगदल में ॥ २८ ॥
सबैया इकतीसा-दरवकी नय परजाय नववाउना,श्रत ज्ञानरूप श्रुतज्ञान तो परोपहें । शुद्ध परमातमाको अनुभी