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(५२) लो सुकतहै ॥ निर विकलप निरूपाधि प्रातमा समाधि, साधि जे सगुन मोक्ष पंधको दुरुतहै । तेई जीव परमदशा में थिररूप है के, धरम बुके न करमसों रुकत है ॥६९॥.. ___ कवित्तछंद-जे जे सोह करमकी परिनति, वंध निदान कही तुम सजा संतत भिन्न शुद्ध चेतन सो, तिन्हि । सूल हेतु कह अव्य ॥ कै यह सहज जीव को कौतुक, के निमित्त पुदल दव्व । लील नवाइ शिष्य इमपूछत, कहै. सुगुरु उत्तर सुतु भव ॥७॥ .
सवैया इकतीसा-जैले नानावरन पुरी बनाइदीजै हेठि उज्जल विमल मनु सूरज करांति है । उज्जलता भास जब वस्तुको विचार कीजै, पुरीकी झलकसों वरन भांति भांति है ॥ लैले जीव दरवको पुग्गल निमित्त रूप; ताकी ममतासो मोह मदिराकी सांति है । भेद ज्ञान दृष्टिसों सुभाव लाधि लीजे तहां, साचि शुद्ध चेतना अवाची सुख शांति है ॥ ७१ ॥
लवैया इकतीला-जैले महिमंडल में नदीको प्रवाह एक, ताहीसें अनेक भांति नीरकी दरनि है । पाथरको जोर तहां धारकी सरोरि होति,कांकरिकी खाति तहां झांगकी झरनि है ॥ पौनकी अकोर तहां चंचल तरंग उठे, भूमिकी निचानि तहां भौरकी परनि हैं। तैसे एक प्रातमा अनंत रस पुदगल,दुहकी संयोग में विभावकी भरनि है।।७२|| दोहा-चेतन लक्षन आतमा, जडलक्षन तन जाल । .. ... . तवकी मसता त्यागिक, लीजें चेतन चाल ॥७३॥ · सवैया तेईसा जो जगकी करनी सब ठानत; जो जग