Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit

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Page 62
________________ (६१) कि कहै यह कर्मज घेरो । है जिन्हकों अनुभौ इहि भांति, सदा तिन्हिकों परमारथ नेरो ॥ १२ ॥ दोहा - जो पुमान परधन हरै, सो अपराधी अज्ञ । · · जो अपनो धन विवहरै, सो धनपति धरमज्ञ ॥ १३ ॥ परकी संगति जो रचै, बंध बडावे सोइ । जो निजसत्ता में मगन, सहज मुक्त सो होइ ॥ १४ ॥ उपजे विनसे थिर रहै, यहतो वस्तु बखान । जो मरजादा बस्तुकी, सो सत्ता परवान ॥ १५ ॥ सवैया इकतीसा - लोकालोक मान एक सत्ताहै आकाश दर्द, धर्म दर्ष एक सत्ता लोक परिमिति है । लोक परवान एक सत्ता है अधर्म दर्व, कालके अणु संख सत्ता अगनिति है ॥ पुदगल शुद्ध परवानकी अनंत सत्ता; जीवकी अनंत सत्ता न्यारी न्यारी थिति है । कोउ सत्ता काहुसों न मिले एकमेक होइ, सवे अस हाय यों अनादिही की थिति है ॥ १६ ॥ सवैया इकतीसा - एड़ छहो द्रव्य इन्हहीको है जगत जाल, तामें पांच जड एक चेतन सुजान है । काहुकी अनंत सत्ता काहुस न मिले कोई, एक एक सत्ता में अनंत गुन गान है | एक एक सतामें अनंत परजाय फिरे, एक में अनेक इह भांति परवान है । यहे स्यादबाद यह संतनिकी मरजाद, यहे सुख पोषय है मोक्षको निदान है ॥१७॥ सवैया इकतीसा - साधि दधि मंथनि अराधि रसपंथनि में, जहां तहां ग्रंथनिमें सत्ताही को सोर है । ज्ञान भानु सतामें सुधा निधान सत्ताही में, सत्ता की दुरनि साँझ सत्ता "

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