Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit

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Page 60
________________ ति, विनसै विभाव अरिपंकति पतन है । जिन्हिके भगतिको विधान पईनो निधान, निगुनके भेदमान चौदह रतन है ॥ जिन्हिक सुबुद्धि रानी चूरि सहा गोह वज, पूरेमंगलीक जे जे मोखके जतनहै । जिन्हिके प्रमान अंग सोहै चसू चतुरंग, तेई चक्रवर्ति तनु धरै पै अतनहै ॥ २ ॥ दोहा-श्रवन कीरत्न चितवन, सेवन वंदन ध्यान । लघुतासमता एकता, नौधा भक्ति प्रमान ॥ ३॥ ' सवैया इकतीसा-कोई अनुभदी जीद कहै मेरे अनुभौमें, लक्षन विभेद भिन्न करमको जाल है । जाने आप आपुनों जुआपुकरी आपुविषे, उत्पति माल भुव धारा असराल है। सारे विकलप मोसों न्यारे सरवथा भेरो, निहाचे सुसाट यह विवहार चाल है । मैं तो शुद्ध चेतन अनंतचिन सुद्रा धारी, प्रभुता हमारी एक रूप तिहूं काल है ॥ ४ ॥ सवैया इकतीसा-निराकार चेतना कहावै दरसल भुन, साकार चेतना शुद्ध ज्ञान गुण सार है। चेतना अद्वैत दोउ चेतन दरवमांहि, सामान विशेप सत्ताही को विसतारहै। कोउपहै चेतना चिनह नाही आत्मामें । चेतनाके नाल होत त्रिविधि विकारहै । लक्षनको नास सत्ता नास मूल वस्तुमाल, तातें जीव दरवको चेतनाआधार है ॥ ५ ॥ दोहा-चेतन लनन आत्मा, आतम सत्ता मांहि । सत्ता परिमित वस्तु है, भेद तिहमें नाहि ॥ ६ ॥ सवैया तेईसा-ज्यों कलधौत सुनारकि संगति, भूपन नांउ कहै सब कोई । कंचनता न मिटी तिहिं हेतु,वहै फिर औटि तु कंचन होई ॥ त्यों यह जीव अजीव संयोग भयो, बहुरूप

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