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(६८) उपयोगको । जाने निज पर तत्त रहे जग में विरत्त, गहे न ममत्त मन वच काय जोगको । ता कारन ज्ञानी ज्ञाना. वरनादि करम को, करता न होइ भोगता न होइ भोग को ॥ ५६ ॥ दोहा-निरभिलाष करनीकरे, भोग अरुचिघटमांहि ।
तातें साधक सिद्ध सम, करताभुगता नांहि ॥१७॥ कवित्त छंद-ज्यों हिय अंध विकल मिथ्या धर, मृषा सकल विकलप उपजावत । गहि एकन्त पक्ष आतमको, करता मानि अधोमुख धावत ॥ त्यों जिनमती दरव चारित कर, करनी करि करतार कहावत । वंछित मुक्ति तथापि मूह मति, विनु ससक्तिभवपारन पावत ॥ ५८॥
चौपाई। चेतनक जीव लखि लीन्हा । पुद्गलकरमचननचीन्हा ।। वासी एक खेत के दोऊ । यदापितथापि मिलेनस्किोऊ॥५९॥ दोहा-निज निज भाउक्रिया सहित,व्यापक व्यापिनकोड़।
करता पुगलकरमको, जीव कहांसो होइ ॥ ६० ॥ सवैया इकतीसा-जीव अरु पुद्गल करम रहे एक खत, जद्यपि तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है । लक्षन सरूप गुन परजे प्रकृति भेद, दुहमें अनादिहीकी दुविधा म्है रही है ॥ एते परि भिन्नता न भासे जीव करमकी, जौलों मिथ्या भाउ तोलों ओंधी वाउ वही है । ज्ञान के उदोत होत ऐसी सूधी दृष्टि भई, जीव कर्म पिण्ड कोअकरतार सही है ॥ ६१॥ दोहा-एक वस्तु जैसी जुहे, तातों मिले न आन। .