Book Title: Samaysar Natak
Author(s): Banarsidas Pandit
Publisher: Banarsidas Pandit

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Page 34
________________ ( ३३ ) धोवी अंतर आत्मा, पानिज शुनही ॥७५|| सवैया इकतीसा-जैसे रजसोचा रज लोधक दरव काढ़े, पायक कनक काही दाहत उपलकों। पंको गरम ज्यामारिच कातक फल, नीर कार उज्वल नितारिमार मलको। दधि. को मधेया मथि काहे जसे मालनकों, राजहंस जैसे दूध पी। त्यागि जलको ।तसे ज्ञानवंत भेदज्ञानकी सकति साधि, बेटे निज संपति उछ। परदल को ।। ७३ ॥ छप्पयछंद-प्रगट भेद विज्ञान, आपशुण परतुणजानापर परिनत परि स्यागि।शुद्ध अनुभव थित ठाने, करि अनुभव अभ्यास । सहज संवर परमासे, आश्रव द्वार निरोधास घ. न तिमर विनास, छय करि विभाव समभाव गजि। निरनिकल्पनिज पद गह, निर्मल विशुद्ध सामुत सुथिर। परम अ. तिद्रिय मुख लहै ।।७७॥ इति श्री नाटक गमगार का गदर हार छठा मपूर्ण. सातवां अध्याचा निर्जरा बार। दोहा-बरनी संवरकी दसा, जशा जुगति परमान। __ मुक्ति विसरनी निर्जरा.सुन भविक धरिकान ॥७॥ चौपाई-जो संवर पद पाइ अनंदे।जो पूरब छत कर्म निकंदे ॥ जो अफंदहें बहुरिन फंदे । सो निरजरा वनारसि 'वंदे ॥ ७॥ दोहा-महिनासम्मक ज्ञानकी,अरु विरागवल जोड़ा . क्रिया करत फल भजते। करसवंधनदिहोइ॥ ८॥ सबैयाइकतीसा-जस भूप कोतक लरूप करनीच कर्म,

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