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(३५) व्यवहार सुपत्ता। साधि संतोष अराधिनिरंजन, देहसुसीख न लेइ अदत्ता.॥ नंग धरंग फिरै तजिसंग छके सरवंग सुधारस मत्ता । ए करतूनि करे सव्ये सामी न अनातन आतम सत्ता ॥ ८६ ॥ ध्यान धेरै करि इंद्रिय निग्रह, वियहसों न गिने निजनत्ता । त्यागि विलाति विशृति सिंटे तनजोग गहे भव भोग विरत्ता ॥ मौन रहे लहि मंद कपाय सह वधवंधन होड़ न तत्ता । ए करतति करे सटप ससुसेन अनातस बातम सत्ता ॥ ८७ ॥
चौपाई-जो विनुज्ञान क्रिया अवगाहे । जोपिनु किया लोख पदचाहे ॥ जो बिनु मोख कहे में सुखिया। सो अजान मूढनि में मुखिया ॥ ८८ ॥
सबैया इकतीसा-जगवासी जीवनिलों गुरु उपदेश कहै, तुम्हे इहांसोवतअनंतकालवीतीजागोव्हसुचत चित्तसमता समेतसुनो,केवल वचन जामें अक्षरसजीतेहैं।आऊ मेरे निकट वताउंमें तुमारे गुन, परन सुरस भरे करमती रीत है। ऐसे वैन कहे गुरु तर ते न धरेउर, मित्रकसे पुत्र किधों चित्रके से चीते हैं ॥ ८९ ॥ दोहा-पते पर बहुरों सुगुरु, बोल बचन रसाल ।
सेन दशा जागृत दशा, कहे दुहूंकी चाल ॥ ९ ॥ संवैया इकतीसा-कायाचित्र सारी में करम परजंक भारी, मायाकी सवारीसेज चादर कलपना । सेन कर चेतन अचेतनता नीदलिप,मोहकी परोस्यहे लोचनको ढपना॥ उदे बलजोर यह वासको सदद शेर, निष सुरू कारजकी दोर यहे सुपना । ऐसी बदसामें मगन रहे तिहकालाधावै भ्रम जाल में न पनि रूप अपना ॥ ११ ॥