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कबहूं न करें, दोई करतूति एक दर्व न करतु है ॥ जीव पुनल एक खेत अवगाही दोई अपने २ रूप कोउ न टरतु है । जड परिनामनिको करता है पुद्गल, चिदानन्द चे - तन सुभाउ चरतु है ॥ १० ॥
सवैया इकतीसा -महा ठीठ दुःखको वसीठ पर दवरूप अंध कूप का निवारयो नहि गयो है । ऐसो मिध्याभाव लग्यो जीवकों अनादिहीको, याही अहंबुद्धि लिये नानाभांति भयो है | काहू स काहूको मिथ्यात अंधकार भेद, ममता उछेदि शुद्ध भाउ परिनयो है । तिनही विवेक धारि बंधको बिलास डारि, आतम सकतिसों जगतजीति लयो है ॥११॥ .
सवैया इकतीसा - शुद्धभाव चेतन अशुद्धभाव चेतन दुहूं को करतार जीव और नहीं सानिये । कर्म पिंडको विलासवर्न रस गंध फास, करता दुहू को पुद्गल पर मानिये ॥ ताते बरनादि गुन ज्ञानावरनादि कर्म, नाना परकार पुद्गल रूप जानिये । समल बिमल परिनाम जे जे वेतन के, ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिये ॥ १२ ॥
सवैया इकतीसा -- जैसे गजराज नाज घासके गरासकरि भक्षत सुभाय नहि भिन्न रस लियो हैं । जैसे मतवारोनहि जाने सिखरनि स्वाद, जुंग में मगनक है गऊ दूध पियोहै ॥ तैसे मिथ्यामति जीव ज्ञानरूपी है लदीव, पग्यो पाप पुन्य सों सहज सुन्न ह्रियो है | चेतन अचेतन दुहूको मिश्र पिंड लखि, एकमेक मानै न त्रिवेक कबु कियो है ॥ १३ ॥
सवैया इकतीसा --जैसे महाधूप की तपति में तिसी मृग, भरमसों मिथ्याजल पीवनकों धायो है । जैसे अंध