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सवैया इकतीसा - जैसे करवत एक काठ वीचि खंडकरै, जैसे राजहंस निरवारे दूध जलकों । तैसे भेद ज्ञान निज भेदक शकतिर्सेति, भिन्न २ करै चिदानन्द पुगलकों । अवधि hi या मनप की अवस्था पावै, उमगि के श्रावै परमादधि के बलकों । याहीभांति पूरनसरूपको उद्योत घरै, करै प्रतिबिंबत पदारथ सकलकों ॥ १०० ॥
. इतिश्रीनाटकका दूसरा अजीवद्वारसमासभया ।
'तीसरा अध्यायकर्त्ता कर्मक्रियाद्वार ।
दोहा-यह अजीवअधिकारको, प्रगट वखान्योमर्म ।
बसून जीव अजैविक, कता कीरा ॥ १०१ ॥ सवैया इकतीसा - प्रथम अज्ञानी जीव कहै में सदीव एक दूसरो न और मेंही करता करमको । अंतर विवेक आयो -आपापर भेद पायो, भयो बोध गयो मिटी भारतभरमको ॥ भासे छहों दरबके गुण परजाय सब, नासै दुःख लख्यो मुख पूरन परसको । करमको करतार मान्योपुदगल पिंड, आप करतार भयो आतम धरम को ॥ २ ॥ जाहि समै जीव देह वृद्धिको विकार तजै, वेदत सरूप निज भेदत भरम को महा परचंड़ मति मंडन अखंड रस, अनुभौ अभ्यास पर कासत परंमको ॥ ताही समै घटमें न रहे विपरीत भाव, जैसे तम नासै भानु प्रगट धरमको। ऐसी दशा आवे जब साधक कहावेत, करता है कैसे करै पुद्गल करमको ॥ ३ ॥
सवैया इकतीसा जग में अनादि को अज्ञानी कहे मेरे कर्म, करता में याको किरियाको प्रतिपाखी है। अंतर से