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२० | सद्धा परम दुल्लहा
"मेरी आत्मा सदा अकेली - एकाकी है, वह शाश्वत - अविनाशी है, शुद्ध-निर्मल है, ज्ञान उसका स्वभाव है । शेष दूसरे जितने भी पदार्थ हैं, वे सब बाह्य हैं, सभी आत्मा से भिन्न हैं । कर्मोदय से प्राप्त, व्यवहार दृष्टि से अपने कहे जाने वाले जो भी बाह्य भाव हैं, वे सब अशाश्वत हैं, अनित्य हैं, नाशवान हैं ।
इस प्रकार का बोध होने से अब तक अज्ञान, मोह और मिथ्यात्व के कारण जो यथार्थ बोध आवृत, अज्ञात और अनुपलब्ध था, वह अनावृत, ज्ञात और उपलब्ध प्रतीत होने लगता है । यही सही अर्थों में सम्यक् श्र्द्धा या सम्यग्दर्शन की उपलब्धि है । अपने में आत्मगुणों की, स्व-स्वभाव की, आत्मस्वरूप तथा आत्मशक्तियों की सत्ता की प्रतीति और दृढ़ श्रद्धा होना ही सम्यग्दर्शन की वास्तविक उपलब्धि या प्राप्ति है ।
प्रश्न होता है कि आत्मा सत् चित् आनन्दरूप से सदैव एक-सा रहा है । वह आत्मा से अनात्मा या अनात्मा से आत्मा कभी नहीं हुआ, नही हो सकता है । उसके स्वरूप में कोई क्षति या कमी नहीं हुई । न ही उसका कोई अंश बना या बिगड़ा फिर क्या कारण है कि संसारी आत्मा कभी किसी और कभी किसी अन्य अभाव या कमी का रोना रोता- विलखता है ? वह अपने अन्दर अनन्त सुख का निधान होते हुए भी वैषयिक सुखों की भीख क्यों मांगता फिरता है ? आत्मा को अजर-अमर अविनाशी शाश्वत मान लेने पर किसी प्रकार का अभाव न रहना चाहिए, फिर भी वह अमुक अभीष्ट सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों की मांग क्यों करता फिरता है ।
इसके मुख्यतया दो कारण हो सकते हैं - (१) या तो उसे अपनी अस्तित्व, नित्यत्व एवं अजर अमरत्व का भान और विश्वास नहीं है, (२) या फिर उसे आत्मा की अनन्त शक्तियों पर विश्वास या निश्चय नहीं है ।
आत्मा की सत्ता तथा शाश्वतता का ज्ञान और उसकी अनन्त शक्तियों का भान एवं निश्चय, एक ही वस्तु नहीं है । आत्मा की शाश्वतता का परिज्ञान होने पर भी जब तक उसकी अनन्त शक्तियों का बोध, निश्चय एवं दृढ़ विश्वास नहीं होता, तथा उन शक्तियो के प्रकटीकरण का परिज्ञान नहीं होता, तब तक शक्ति के रहते हुए भी व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता । अतः आत्मा में निहित अनन्त गुण राशि शक्ति एवं उनके प्रकटीकरण का
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