________________ संयुक्त होने पर भिन्न वृत्ति वाला प्रतीत होता है। वस्तुतः सदा एकस्वरूप में रहने वाले आत्मा में वृत्ति-वैभिन्य होता ही नहीं। जिस प्रकार चन्द्रमण्डल अभ्रसंचय के द्वारा छादित होने पर भी उससे भिन्न ही रहता है और चन्द्र कभी अभ्रसंचय नहीं हो जाता; वैसे ही आत्मा शरीर से संयुक्त होने पर भी उससे भिन्न रहता है अर्थात जड़त्व को नहीं प्राप्त करता और वह कभी भी शरीर नहीं हो सकता। जब तक उसे अपने चैतन्य स्वरूप का बोध नहीं होता, वह ज्ञानहीन तथा नाना कर्म-विमूढ-धी होकर सुखी-दुःखी कर्ता-भोक्ता होता है। स्वरूपावरण के हटने पर ही उसका कल्याण होता है। आत्मा का अनेकत्व (अनन्तत्त्व) आत्माएँ अनेक हैं-इस अवधारणा को सप्रमाण प्रस्तुत करते हुए सांख्यकारिका-कार का कथन है: 1. उत्पत्ति, हेतु और इन्द्रियादि कारणों की विभिन्नता से 2. अलग-अलग प्रवृत्तियों को देखकर तथा 3. सत्व, रजस्, तमस् की असमानता से पुरुषबहुत्व की सिद्धि होती है।" ___ अनेक आत्माओं को मानने का हेतु देते हुए जैन दर्शन में भी कहा गया है-सुख-दुःख, जन्म-मरण, बंधन-मुक्ति आदि अनेक दशाओं के सन्तोषप्रद समाधान के लिए अनेक आत्माओं की स्वतन्त्र सत्ता मानना अत्यावश्यक है।" जैन दर्शन में यह मान्यता स्वीकृत नहीं है कि मौलिक आत्मा एक ही है तथा अन्य सब उसके आभास मात्र हैं। यद्यपि जैन दर्शन में “एक आत्मा"३२ का उल्लेख भी आया है परन्तु उसका तात्पर्य भिन्न है। सब जीवों का चेतना लक्षण होने से अर्थात् स्वरूप साम्य (सजातीय) होने से एकत्व निरूपित है तथा प्रत्येक आत्मा अकेला है “एगे अहमंसि"३३ उसके लिए उसका एकत्व ही स्थायी है, इस हेतु से भी एकत्व निरूपित है, परन्तु साथ ही अन्य आत्माओं को भी उसी प्रकार से अस्तित्त्ववान् माना है। .... पुराणों में भी आत्मा के एकत्व तथा अनेकत्व का वर्णन आया है। एकत्व का वर्णन पूर्ववर्णित दोनों हेतुओं के आधार पर तो है, परन्तु साथ ही मुख्य हेतु यह है, जो जैन दर्शन से भिन्नता रखता है-एकत्व वर्णन-एक मौलिक आत्मा की अपेक्षा से है जो सदैव निर्लेप रहती है-मुक्त रहती है तथा सर्वव्यापक है। आत्मा शुद्ध, अक्षर, शान्त, निर्गुण और प्रकृति से परे है तथा समस्त जीवों में वह एक ही ओतप्रोत है, अत: कभी उसके वृद्धि-क्षय नहीं होते। इस प्रकार आत्मा की कूटस्थता भी जैन दर्शन में मान्य नहीं है। 71 / पुराणों में जैन धर्म