________________ जिससे साधुजनों द्वारा निन्दित होना पड़े। किसी के धर्म को हानि न पहुँचाये एवं बुरे लोगों का संग भी कभी न करे। उत्तम व्यक्ति परधन तथा परस्री में बुद्धि न लगाये एवं उसके लिए करणीय तथा अकरणीय कार्यों का विधान करते हुए विष्णुपुराण में लिखा है मतिमान पुरुष को स्वस्थ चित्त से ब्रह्ममुहूर्त में उठकर अपने धर्म तथा धर्म कार्य में बाधक विषय पर विचार करना चाहिए और उस कार्य का भी विचार करे जिससे धर्म और अर्थ की हानि न हो। धर्म के विरुद्ध जो अर्थ और काम है, उनका त्याग करे और ऐसे धर्म को छोड़ दे जो आगे चलकर, दुःखमय हो जाये अथवा समाज के विरुद्ध हो। श्रद्धापूर्वक दान एवं अतिथि सत्कार तथा पूज्यजनों, गुरुजनों का आदर करे तथा दुष्टों का संग नहीं करे, सदाचारी पुरुषों के साथ रहे। जो पुरुष इन्द्रियों को जीतकर समय के अनुसार हितकारी, अल्प और प्रिय वचन कहता है, लज्जावान्, क्षमावान्, आस्तिक और विनयशील होता है, वह विद्वान और कुलीन पुरुषों के योग्य श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त करता है।' इत्यादि अनेक सदाचार जो पुराणों में एक गृहस्थ के लिए आदरणीय बताये गये हैं, जैन धर्म वर्णित गृहस्थ की सामान्य आचार-संहिता के लगभग समान हैं / आचार्य हरिभद्र तथा आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार मार्गानुसारी श्रावक के लिए भूमिका के रूप में जिस सामान्य आचार संहिता की आवश्यकता रहती है, वह है 1. वह न्याय-नीति से धन का उपार्जन करने वाला। 2. शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करने वाला। 3. अपने कुलशील के समान, भिन्न गोत्रवालों के साथ विवाह सम्बन्ध करने वाला। 4. पापों से डरने वाला। 5. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करने वाला। 6. किसी की (राजादि की) निन्दा न करने वाला। 7. न एकदम खुले या न एकदम गुप्त स्थान पर घर बनाने वाला। 8. घर से बाहर निकलने के द्वार अनेक न रखने वाला। . 9. सदाचारी पुरुषों की संगति करने वाला। 10. माता-पिता की सेवा करने वाला। 11. चित्त में क्षोभ (क्लेश) कारक स्थान से दूर रहने वाला। 12. निन्दनीय कार्य में प्रवृत्ति नहीं करने वाला। 13. आय के अनुसार व्यय करने वाला। 14. अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार वस्र पहनने वाला। 15. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होकर प्रतिदिन धर्म श्रवण करने वाला। विशेष आचार / 186