________________ प्रश्रेणियाँ स्थापित करते हैं। पुरुषों की बहत्तर कलाएँ, स्रियों की चौंसठ कलाएँ, अठारह लिपियाँ, चौदह विद्याएँ वगैरह सिखलाते हैं। इस प्रकार कर्मभूमि का प्रारम्भ हो जाता इस वर्णन के लगभग समान वर्णन मार्कण्डेय पुराण में भी दृष्टिगत होता है। वहाँ भी युगलों का वर्णन करते हुए कहा है कि वे मिथुन आयु के अन्त में केवल एक बार ही सन्तानोत्पत्ति करते थे। अन्त अवस्था में ही एक कुलिक और कुलका (पुत्र-पुत्री युगल) उत्पन्न होते थे। उस समय वे सब सरिता (नदी), सरोवर, समुद्र और पर्वतों का ही उपयोग करते थे। विचरण करते हुए उन सब प्राणियों को उस युग में न अधिक शीत लगती थी और न अधिक उष्णता से वे पीड़ित थे। संस्कारहीन (संस्कार हीनता का तात्पर्य यहाँ वर्तमान में प्रचलित नामकरणादि सोलह संस्कारों की रहितता हो सकता है) शरीरों से युक्त होते हुए भी वह प्रजा स्थिरयौवन वाली थी। उनके (युगलों के) बिना संकल्प के उत्पन्न हुई मिथुनवती प्रजा जिस प्रकार साथ-साथ उत्पन्न होती थी, उसी प्रकार रूप आदि में ममत्व प्राप्ति करके एक साथ ही मरती थी। वे परस्पर इच्छा एवं द्वेषरहित होकर व्यवहार करते थे। उनमें ऊँच-नीच की भावना भी न थी। कल्पवृक्षों से समस्त उपभोगों की प्राप्ति होती थी। त्रेता युग के प्रारम्भ में उन्हीं कल्पवृक्षों के द्वारा मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करते थे। कुछ समय * पश्चात् उनमें अकस्मात् राग का प्रादुर्भाव हुआ। तत्पश्चात् गृहों में स्थित कल्पवृक्षों में भी राग की उत्पत्ति हुई, इससे कल्पवृक्ष नष्ट हो गए और अन्य प्रकार के चार शाखाओं वाले वृक्षों की उत्पत्ति हुई। उनके फलों से वस्र एवं आभरण उत्पन्न होते थे। उन फलों के प्रत्येक पुट में श्रेष्ठगंध, वर्ण एवं रस से युक्त परम बलशाली मधु, मक्खियों के बिना ही उत्पन्न होता था। फिर काल-क्रम से प्रजा लोभयुक्त होने लगी एवं ममत्व से अविष्ट चित्त होकर उन वृक्षों को एक-दूसरे से छीनने लगे। इस प्रकार के दुराचरण से वे सभी वृक्ष नष्ट हो गये। तत्पश्चात् शीत-उष्ण, क्षुधा और पिपासा आदि द्वन्द्व उत्पन्न हुए। तब पूर्वकाल में उन द्वन्द्वों को दूर करने के लिए पुरों का निर्माण किया गया। मधु के सहित उन कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर अब शीतोष्ण आदि द्वन्द्वों का उपघात करके वे अपनी जीविका की चिन्ता करने लगे। तब क्षुधा और पिपासा से पीड़ित एवं विषाद से प्रजाएँ व्याकुल हो गईं। वर्षा का जल निम्नगामी था। वृष्टि का रुका हुआ जल ही स्रोत बन गया। इसके गिरने से हल से जोते बिना ही ग्राम्य और अरण्य आदि चौदह वृक्ष और गुल्म उत्पन्न हो गए, वे सभी ऋतुओं में पुष्प और फल उत्पन्न करते थे। इसी प्रकार त्रेता युग के आरम्भ में सभी औषधियाँ हुईं। राग और लोभ से युक्त हुई प्रजाएँ इन औषधियों के द्वारा ही अपनी जीविका चलाती थी। उसके पश्चात् मात्सर्य के कारण अपने बल के अनुसार मनुष्य नदी, क्षेत्र, पर्वत, वृक्ष, गुल्म, औषधि को ग्रहण करने .. 233 / पुराणों में जैन धर्म