Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 266
________________ ईश्वर की अवधारणा ईश्वर शब्द “ईश्” धातु से निष्पन्न है जो शक्तिसंपन्नता की ओर इंगित करता है। ईश्वर शब्द का अर्थ पूर्ण सामर्थ्यवान् (पूर्ण ऐश्वर्यवान्) ही है न कि कर्तृत्व / “सामर्थ्य का अर्थ जगत् पर अपना साम्राज्य जमाना नहीं हो सकता। इसका अर्थ यह हो सकता है कि आज तक जो आत्मा जड़पदार्थ पुद्गलद्रव्य की सत्ता के नीचे दबा हुआ था-कर्म की आज्ञा के अधीन था, उस आत्मा के द्वारा कर्मदल को चकचूर करके कर्म की सत्ता को जड़-मूल से उखाड़कर अनन्तज्ञान और अनन्तदर्शन रूपी अपनी अतुल समृद्धि पर कब्जा करके स्वाभाविक पर्याय की सत्ता पर पूर्ण स्वतन्त्रतया अपना साम्राज्य जमाना और अनन्त परमानन्द में तल्लीन रहना या पूर्ण ब्रह्म-पद प्राप्त करना। ___ ईश्वर की अवधारणा विभिन्न दर्शनों में विभिन्न प्रकार की है। दो प्रमुख विचारधाराएँ भारतीय दर्शनों में प्रमुख रूप से दो प्रकार की विचारधाराएँ प्रवाहित हैं। जिनमें से कुछ परम्पराएँ परमात्मवादी (ईश्वरवादी) हैं तथा कुछ आत्मवादी हैं। जैनदर्शन तथा सांख्यदर्शन आत्मवादी दर्शन हैं। ईश्वरवादियों के अनुसार सर्वोच्च (सर्वोपरि) शक्ति ईश्वर है। वह सर्वतंत्र, स्वतन्त्र, सर्वव्यापक शक्ति है / कर्ता, हर्ता, भर्ता वही है। वही अपनी इच्छा के अनुसार संसार को चलाता है, आत्मा को शुभ-अशुभ की ओर प्रेरित करता है अर्थात् जो कुछ है, वह ईश्वर है, जीव का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। आत्मा को ईश्वर का अनुयायी, उपासक एवं सेवक माना है। चराचर जगत् ईश्वर का ही मूर्तरूप है, वही एक सर्वत्र व्याप्त है। एक ही तत्त्व की व्यापकता विष्णु पुराण में इस प्रकार से बताई गई है-वह एक ही भगवान् जनार्दन जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन तीन संज्ञाओं को धारण करते हैं। वही स्रष्टा (ब्रह्मा) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक (विष्णु) हो पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं, और अन्त में स्वयं संहारक (शिव) होकर स्वयं ही उपसंहत-लीन होते हैं। ईश्वर की अवधारणा / 246

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