________________ आत्मस्वरूप है तथा किसी भी प्रकार से कर्ता एवं भोक्ता नहीं है। जगत् में कर्तृत्व युक्त ईश्वर की पुराणों में सगुणता-साकारता भी व्यक्त है, परन्तु मुक्त आत्मा सदैव निराकार ही रहता है। ईश्वर का स्वरूप ... जैनाचार्यों ने स्पष्टतः ईश्वर का स्वरूप निर्धारण करते हुए एवं किसी भी प्रकार का हठामह न रखते हुए परमात्मा का वर्णन इस प्रकार किया है भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै // " .. अर्थात् भवरूप अंकुर को उत्पन्न करने वाले रागादि बीज जिनके नष्ट हो गये हैं, ऐसे ब्रह्मा या विष्णु या हर अथवा जिन जो भी हो, उन्हें नमस्कार है। मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये // 22 अर्थात् मोक्ष का मार्ग बताने वाले, कर्मरूपी पर्वतों का भेदन करने वाले, विश्व के समस्त तत्त्वों को जानने वाले को,उन गुणों को प्राप्त करने के लिए वन्दन करता हूँ। पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु / युक्तिमद्ववचनं यस्य तस्य कार्य: परिग्रहः // 2 मेरा न तो महावीर में पक्षपात है और न ही कपिलादिक में द्वेष है। जिसके वचन युक्तियुक्त हैं, उनका ग्रहण करना चाहिए। उपर्युक्त पद्यों से यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है कि नाम के प्रति ज्ञानी उपासक का कोई आग्रह नहीं होता। यहाँ तो मात्र निष्कर्मता, अर्हता, वीतरागता आदि गुणों के धरातल पर जो भी खड़ा हो, वह ईश्वर है। वस्तुतः बैन संस्कृति के अनुसार सदा के लिए भक्त ही बने रहना इष्ट नहीं है, बल्कि वही एक दिन भगवान् बन जाता है। इसके अनुसार यह सिद्धान्त है कि मनुष्य से भगवान् बनता है, भगवान् से मनुष्य नहीं। जो भी प्राणी त्याग और तपस्या के मार्ग पर चलकर अपने आत्मविकास की परम उत्कर्षता पर पहुँच जाता है—परमेष्ठी बन जाता है, उसे ही अलौकिक ऐश्वर्य का भोक्ता होने से ईश्वर कहा जाता है। आत्मा के परमोत्कृष्ट पद को प्राप्त कर लेने से वही परमात्मा कहलाता है। अर्थात् कर्मरूपी आवरण से बद्ध आत्मा जब पुरुषार्थ द्वारा अपने को कर्मरहित कर लेता है तथा उसका शुद्ध स्वरूप प्रगट हो जाता है तब वही परमात्मा कहलाता है। अन्तर मात्र कर्ममल का है। अशुद्ध स्वर्ण तथा शुद्ध स्वर्ण में जिस प्रकार अशुद्धि का अन्तर ईश्वर की अवधारणा / 252