Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 273
________________ रहता है अर्थात् अशुद्धि हटने पर वही स्वर्ण शुद्ध बनता है, वैसे ही परमात्मदशा में आत्मतत्त्व वो वही होता है, परन्तु उसका आच्छादक (आवरण) नष्ट हो जाता है। मुक्तात्मा के परमात्मत्व को अर्थात् जीव के शिवत्व को पुराणों में भी स्वीकृत किया गया है। जहाँ तक आत्मा को शिवस्वरूप मानने का सिद्धान्त है, दोनों महापुराण (शिव, कम) एकमत है। दोनों यह मानते हैं कि अहंकार और अविवेक के कारण ही आत्मा दुःख को भोगता है। अविवेक की निवृत्ति से जीव शुद्ध-बुद्ध परमात्म शिव ही हो जाता है।"२५ इस प्रकार आत्मा द्वारा ईश्वरत्व की प्राप्ति को पुराणों में भी माना गया है। परमात्मा के वर्णन के अन्तर्गत वीतराग, कर्म-रहित, जन्ममरणातीत, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी इत्यादि विशेषणों का प्रयोग किया गया है।२६ __ जैन दर्शन में गुणों की पराकाष्ठा युक्त परमात्मा को उपास्य रूप में देखा गया है, देव-गुरु-धर्म इन तीनों तत्त्वों की आराधना (उपासना) को अपने गुणों की प्राप्ति का अवलम्बन बताया गया है। वैसे ही पुराणों में ईश्वर को उपास्य कहा है, उसकी उपासना एवं उपासकों का भी वर्णन प्राप्त होता है। परमात्माओं को जैन दर्शन में अनन्त माना गया है। फिर भी वहाँ उनमें भेद नहीं है। ज्ञानादि गुणों की दृष्टि से सभी एक समान हैं। पुराणों में मुक्तात्माएँ एक नहीं, अनेक मानी गई हैं। * / . जैन दर्शन में परमात्मा सादि है या अनादि, यह एकान्तदृष्टि से निर्णीत नहीं किया गया है। जब जगत् अनादि है तो यह भी स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि अनादिकाल से अनन्त आत्माएँ परमात्म पद को प्राप्त होती रही हैं अर्थात् कोई ऐसा काल नहीं था, जिस समय परमात्मा नहीं था। इस अपेक्षा से हम इसे अनादि कह सकते हैं, परन्तु व्यक्तिभेद की अपेक्षया. परमात्मा को सादि भी कहा गया है, क्योंकि आत्मा अपने पुरुषार्थद्वारा मुक्त होता है, वह नित्य मुक्त नहीं। अर्थात् अनादिकाल से मुक्त नहीं है, साधनमुक्त है। अतः एक सिद्ध के अपेक्षा से वह सादि अनन्तकाल है, किन्तु समस्त सिद्धों की अपेक्षा से अनादि अनन्तकाल है। .. पुराणों में बहाँ-जहाँ भी मुक्ति का वर्णन है, उससे मुक्तात्माओं का सादित्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है एवं अनादि का विशेषण तो लगभग सभी जगह परमात्मा के लिए प्रयुक्त है। परमात्मा के सादि-अनादित्व में तो फिर भी विभिन्न दर्शनों में विवाद हो सकता है, परन्तु उसके अनन्तत्व अर्थात् जिसका कभी अन्त नहीं आता. ऐसे * शाश्वतरूप के लिए तो लगभग सभी सहमत हैं। 253 / पुराणों में जैन धर्म

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