Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 279
________________ है। संसार के मल आदि पाश भी समाप्त हो जाते हैं। आत्मा संसार से पूर्णरूपेण मुक्त हो जाता है।५ इस कथन से द्वैत-भाव भी स्पष्ट होता है। इसके अनुसार जैन दर्शन के समान. ही वह आत्मा भी जो मुक्त होती है, स्वतन्त्र अस्तित्व रखती है। उस परमात्मा का जगत् के प्रपंचादि से कोई सम्बन्ध नहीं होता। जैन दर्शन के इस आशय से साम्य रखता हुआ कूर्मपुराण का कथन है-"यह न किसी कर्म को करने वाला है तथा न कर्मों के बुरे-भले फलों को भोगने वाला ही है। यह न प्रकृति है और न पुरुष ही है। न यह माया है और परमार्थ स्वरूप से यह प्राण भी नहीं है। जिस तरह से प्रकाश और तम का एकत्र सम्बन्ध कभी भी उत्पन्न नहीं हुआ करता है, उसी भाँति इस प्रपंच का और परमात्मा का ऐसा ऐक्य सम्बन्ध नहीं होता। यह इसी भाँति भिन्न है जैसे लोक में छाया और आतप परस्पर में एक-दूसरे से विलक्षण ही होते हैं और कभी दोनों एकत्र नहीं रह सकते हैं।*५६ इस प्रकार समस्त भौतिकताओं से उसकी भिन्नता स्पष्ट की गई है। निष्कर्षतः जैन दर्शन में वर्णित परमात्मा की तुलना पुराणों में वर्णित ईश्वर से न होकर मुक्तात्मा से हो सकती है, क्योंकि वहाँ बहुशः ईश्वर के साथ सृष्टि कर्तृत्व को जोड़ा गया है, किन्तु मुक्त आत्मा (साधनमुक्त आत्मा) के स्वरूप के साथ बहुत-सा साम्य है। अतः उस मुक्तात्मा अथवा शुद्धात्मा की तुलना जैन दर्शन-वर्णित सिद्ध परमेष्ठी से हो सकती है। उसके अकर्तृत्त्व का प्रतिपादन जैन दर्शन के समान ही पुराणों में दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार से जैन दर्शन में आत्मा से परमात्मा बनने की अवधारणा बताते हुए कर्म-क्षय होने पर परमात्मा दशा की प्राप्ति बताई गई है, उसी प्रकार से अनादि कर्ममलबद्ध आत्मा के कर्मनाश के पश्चात् मुक्त होने की योग्यता पुराणों में स्वीकृत की गई है एवं जैन दर्शन के समान ही पहले सदेहमुक्ति (जीवन्मुक्ति) तथा बाद में विदेहमुक्ति का वर्णन भी दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः अनावृत आत्मस्वरूप ही.जैन दर्शन एवं पुराणों में परमात्मा है। ईश्वर के सम्बन्ध में लगभग सभी दर्शनों में थोड़ा बहुत वैभिन्य तो है ही फिर भी उनमें मुख्यतः ईश्वर को सत्-चित्-आनन्द स्वरूप माना है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार इस परम-पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध परमात्मा को ही विविध साम्प्रदायिक दृष्टि वाले अपनी-अपनी मान्यतानुसार पूजा करते हैं। क्या धवलवर्ण का शंख विविध काचकामलादि रोग वाले को अनेक प्रकार के रंगों वाला नहीं दिखाई देता?" वस्तुतः वह अलग-अलग रूपों वाला नहीं है, शुद्ध तथा पूर्ण होने से ही वह परमात्मा कहलाता है। 000 259 / पुराणों में जैन धर्म

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