Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 278
________________ यो अनिर्वचनीय दृष्टिकोण व्यावहारिक दृष्टि से उस (निराकार परमात्मा) को उपलक्षित भले ही किया जाता है, परन्तु वस्तुतः वह अनिर्वचनीय है, इसीलिए आचारांग सूत्र का कथन हैसव्वे सरा नियटृति, तक्का तत्थ न विज्जइ। . "चन विज्जड़ा मई तत्थ न गाहिया ओए, अप्पइट्ठाणस्स खेयन्ने। अर्थात् शुद्ध आत्मा (सिद्ध) का वर्णन करने में कोई शब्द समर्थ नहीं है। समस्त स्वर वहाँ से लौट आते हैं। वाणी उसका निर्वचन करने में कथमपि समर्थ नहीं है। तर्क की वहाँ तक पहुँच नहीं है। मति (बुद्धि) उसे ग्रहण करने में असमर्थ है अर्थात् वह वाणी, विचार और बुद्धि का विषय नहीं है। केवल सम्पूर्ण ज्ञानमय / आत्मा ही वहाँ है। किसी उपमा के द्वारा उसे समझाया नहीं जा सकता। उसके लिए किसी पद का प्रयोग नहीं किया जा सकता, समस्त पौगलिक गुणों और पर्यायों से अतीत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय सत्-चित्-आनन्दमय सिद्ध स्वरूप है।५९ पुराणों में भी अनामातत्त्व के अनिर्वचनीय स्वरूप को इसी प्रकार से बताते हुए कहा है-यह एक ऐसी सत्ता है जो वाणी और मन का भी विषय नहीं हो सकती, उसका न कोई नाम है और न कोई रूप ही। सत्य तो यह है कि उसकी कोई परिभाषा भी नहीं दी जा सकती। श्रुति भी चकित होकर उसकी सत्ता स्वीकार करती है। . यतो वाचा निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह। , अभिधत्ते स चकित यदस्तीति श्रुतिः पुनः ॥र लोक, अध्वा और तत्व से परे जो है, वही परात्पर है, अनामा है। अनामातत्त्व अनुत्तररूप,निरतिशय,अलक्षणता,अनिर्देश्य,अवांगमनसगोचर,सदा एकरस,अनिर्वचनीय है-उसका वर्णन नहीं किया जा सकता, वह अनुभूति-गम्य है, स्वात्मप्रकाश है। शास्रों के कथन से उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। महेश्वर, शिव, सदाशिव, ईश्वर से ऊपर की वस्तु है। जिसके ऊपर और कोई तत्त्व नहीं है। जो कालक्रम से भी परे है। परिपूर्ण होने के कारण ही वह अनामा है / 533 ____ पुराणवत् ही शुद्धात्मा के स्वरूप को अनिर्वचनीय बताते हुए अनेक उपनिषद् भी यही प्रतिपादित करते हैं कि उस दशा का वर्णन करने में सारे शब्द निवृत्त हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की पहुँच नहीं और न बुद्धि उसे ग्रहण कर पाती है। कर्ममलरहित केवल चैतन्य ही उस दशा का ज्ञाता है।" जैन दर्शन के समान पुराणों में उस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर आत्मा पुनः संसार में नहीं लौटता, यह बताते हुए शिवपुराण का कथन है मुक्त होने पर आत्मा ब्रह्म में विलीन नहीं होता है, किन्तु उसके समान हो जाता है। उसे शिव-साधर्म्य की उपलब्धि होती है। इसकी प्राप्ति से प्राणी जन्म एवं पुनर्जन्म के चक्र से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। उसके पुण्य-पाप सभी विनष्ट हो जाते हैं। वह निरंजन हो जाता ईश्वर की अवधारणा / 258

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