________________ भौतिक पदार्थ जो प्राप्त होते हैं, वे अवश्य ही छूटने वाले होते हैं, यह परिवर्तन जगत् की अनित्यता का सूचक है। यद्यपि पुराणों में सृष्टयुत्पत्ति एवं प्रलय सम्बन्ध का बहुत विश्लेषण है, जिनमें सृष्टि को ईश्वरकृत माना है; तथापि जैन दर्शन के समान ही मूल मन्तव्य तो यही है कि यह जगत् अनादि और अनन्त है, फिर भी परिवर्तनशील है, जैसा कि भागवत् पुराण में कहा गया है यवेदानी तथा च पश्चादप्येतदीदृशम्॥७ जैन दर्शन की भाँति पुराणों में भी जगत् को एक ही तत्त्व पर आधारित न मानकर उसके अस्तित्व को अनेक द्रव्यों पर निर्भर माना है, क्योंकि पुराणों के अनुसार भी मात्र (जड़) प्रकृति अथवा मात्र (चेतन) पुरुष के द्वारा सृष्टि गतिशील नहीं होती अपितु जड़ एवं चेतन दोनों के संयोग से सृष्टि गतिशील है। पुराणों में जीव का अनेकत्व स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है। वस्तुत: आत्मा के साथ कर्म आदि मलों का संयोग ही संसार है। सांख्य से प्रभावित होने से समस्त तत्त्वों की नित्यता भी पुराणों में स्वीकृत है। जब सभी द्रव्य मित्य हैं तो उनके निर्माण का प्रश्न ही नहीं उठता। यद्यपि वैदिक परम्परा में समस्त सृष्टि का उत्पादक ईश्वर को स्वीकृत किया गया है अर्थात् ईश्वर को जगत् के सृष्टा के रूप में देखा गया है। ईश्वरकर्तृत्व का विष्णु पुराण आदि कई पुराणों में निरूपण किया गया है। इसी प्रकार पुराणों में ईश्वर को एक तथा सर्वव्यापक भी बताया गया है, किन्तु जैन दर्शन में ऐसा नहीं है। जैनमत के ईश्वरवर्णन में एवं पुराणों के ईश्वर-स्वरूप में पर्याप्त अन्तर दृष्टिगोचर होता है। इसलिए हम जैनमत के ईश्वर के साथ पौराणिक ईश्वर की तुलना नहीं कर सकते, परन्तु पुराणों में वर्णित मुक्त आत्माओं का स्वरूप पर्याप्त रूप से जैन दर्शन में वर्णित ईश्वर के स्वरूप से समानता रखता है। जैन दर्शन के अनुसार-जो-जो आत्मा मुक्त हो जाती है वे सभी परमात्मा हैं, उनकी कोई संख्या न होने से उन्हें अनन्त कहा गया है तथा वे सर्वव्यापक भी नहीं हैं। लगभग इसी प्रकार का वर्णन करते हुए शिव पुराण का भी मत है कि जो-जो आत्मा मुक्त हो जाती हैं, वे सभी परमात्मपद को प्राप्त करती हैं, कर्मबंधनों से मुक्त हो जाने के बाद वे पुनः जन्म-मरण को ग्रहण नहीं करती तथा कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व से रहित हो जाती हैं।८ इत्यादि समस्त वर्णन जैन-दर्शन के अरिहंत तथा सिद्ध परमेष्ठी (परमात्मा) के स्वरूप वर्णन के तुल्य ही है। इस प्रकार से पुराणों में जैन दर्शन के समान आत्मा से परमात्मा बनने की धारणा भी व्यक्त होती है। उस परमात्मा में समस्त राग-द्वेष आदि वृत्तियों का अभाव बताया है, इसीलिए जैन दर्शन की भक्ति भी वैदिक-दर्शन से भिन्न तथा विशिष्ट प्रकार की है। वैदिक परम्परा में अनुग्रह, अनुराग, करुणा आदि ईश्वर पूज्यता के आधार रहे हैं, जबकि जैन धर्म में मुख्यत: वीतरागता ही ईश्वर पूज्यता का निमित्त रहा है। 271 / पुराणों में जैन धर्म