Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 287
________________ जिन्होंने जैन धर्म का उपदेश दिया था। वस्तुतः यह धर्म इतना प्राचीन है कि प्राचीनतम ग्रन्थों तथा अवशेषों आदि में इसका उल्लेख अवश्य पाया जाता है, जैनेतर वैदिक संस्कृति में भी इसके प्रमाण उपलब्ध होते हैं। * इस युग के जैन धर्म के आद्य प्रवर्तक ऋषभदेव का वेद, पुराण आदि ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन पाया जाता है। भागवतादि पुराणों में ऋषभदेव के जीवनचरित का अंकन ही नहीं किया गया, अपितु उन्हें उपास्य के रूप में भी देखा गया है। इतना ही नहीं, पद आदि पुराणों में जैन धर्म का आर्हत् धर्म के नाम से विवेचन करते हुए एवं उसके प्रमुख लक्षणों का निरूपण करते हुए पद्म पुराण में चौबीस तीर्थकर, परमेष्ठी मंत्र, दीक्षा, देव अरिहन्त, गुरू निम्रन्थ एवं दयामय धर्म इत्यादि भी वर्णित हैं।' - पुराण यद्यपि वैदिक संस्कृति से सम्बद्ध हैं एवं जैन धर्म वेद विरोधीधों की श्रेणी में आता है, किन्तु फिर भी उनमें जैन धर्म के आचार-पक्ष ही नहीं, विचार पक्ष की भी बहुत-सी समानताएँ हैं तथा उनमें वेद विरोधी विचारधाराएँ स्पष्टतः दिखाई देती है, निवृत्तिपरक उन विचारों का जैन धर्म से पर्याप्त साम्य है। पुराणों में विभिन्न विचारधाराओं का समावेश हुआ है। यद्यपि पुराणों के मुख्य दर्शन सांख्य तथा योगदर्शन है; परन्तु अन्य भी अनेकों दर्शन उनमें उल्लिखित हैं, यथा-मीमांसा, विशिष्टद्वैत, द्वैताद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद, शिवाद्वैत, चार्वाक, जैन, बौद्ध, माहेश्वर, पाशुपत, प्रत्यभिज्ञादर्शन। तात्पर्य यह है कि समय-समय पर प्रचलित दर्शनों एवं धर्मों का उल्लेख किसी न किसी रूप से पुराणों में हुआ है। पुराणों में अभिव्यक्त अनेक सिद्धान्त जैन धर्म से साम्य रखते हैं। जैन दर्शन के तात्विक विश्लेषणों अर्थात् मौलिक अवधारणाओं का भी साम्य परिलक्षित होता है, जिनको आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। जिस प्रकार से जैन दर्शन ने द्रव्य की एक विशेष परिभाषा दी है, जिसके अनुसार द्रव्य की नित्यानित्यता वर्णित है; उसी प्रकार से पुराणों में भी द्रव्य (सत्) का स्वरूप वर्णित है। बौद्ध दर्शन के अनुसार “यत्सत् तत्क्षणिकम्” अर्थात् जो कुछ सत् है वह क्षणिक है, प्रत्येक पदार्थ (द्रव्य) क्षणिक है; किन्तु इसके ठीक विपरीत मन्तव्यः शांकर दर्शन का है। उनके अनुसार “त्रिकालाबाध्य त्वं सत्वम्" अर्थात् तीनों कालों से अबाधित वस्तु ही सत् है, इससे द्रव्य की नित्यता व्यक्त होती है। बौद्ध दर्शन में सत को क्षणिक मानकर उसके नित्यत्व को आभास कहा है. जबकि शांकर दर्शन में सत् को नित्य मानते हुए उसके परिणाम को आभास बताया है। जैन दर्शन वर्णित सत् का यह सिद्धान्त इन दोनों के बीच समन्वय प्रस्तुत करता है-"उत्पादव्यय धौव्य-युक्तं सत्” अर्थात् सत् को न तो एकान्ततः नित्य कहा जा सकता है और न एकान्ततः क्षणिक कहा जा सकता है। सत् नित्य भी है और परिणामी भी है अर्थात् धौव्ययुक्त होते हुए भी उसमें उत्पाद-व्यय का सद्भाव रहता है। अतः सत् लक्षण . .. 267 / पुराणों में जैन धर्म

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