Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 288
________________ वाला द्रव्य नित्य एवं परिणामी है, उत्पाद व्यय उसकी अनित्यता के सूचक हैं तथा धौव्यं उनके नित्यत्व का द्योतक है, यह साधर्म्य सांख्यदर्शन में भी दृष्टिगोचर होता . है, सांख्यदर्शन द्वारा सर्वाधिक प्रभावित होने से इस सिद्धान्त का पुराणों में उपलब्ध होना सहज ही है। वैदिक संस्कृति की प्रमुख धारणा सृष्टि तथा प्रलय की है जिससे द्रव्य का नित्यत्व पूर्णतया बाधित होता है, परन्तु पुराणों में सत् की नित्यता भी स्पष्टतः निरूपित है। द्रव्य के जड़ तथा चेतन दोनों रूपों का उल्लेख करते हुए विष्णु पुराण में कहा गया है जीव व जगत् नित्य है, भले ही जगत् एवं जीव का सम्बन्ध स्थायी नहीं है। आविर्भाव-तिरोभाव, जन्म-नाश आदि विकल्पों वाला विश्वं यथार्थ में तो नित्य है। प्रस्तुत कथन से नित्यता के साथ ही पदार्थों का आविर्भाव-तिरोभाव (उत्पाद-व्यय) भी बताया गया है, नित्यत्व के साथ ही अनित्यत्व भी प्रदर्शित किया गया है। जगत् की समस्त अवस्थाओं व पदार्थों को नश्वर, क्षणभंगुर बताते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण का कथन है__“जल बुद्बत् सर्व संसार स चराचरम्। प्रभाते स्वप्नन्मिथ्या मोहकारणमेव च* यही नहीं, अनेक पुराणों में एक साथ ही प्रकृति के नित्यानित्यत्व को भी प्रतिपादित . किया है। स्कन्द पुराण में लिखा है- . इति विज्ञाय संसारमसारं च चलाचलम् , द्रव्यों के जड़रूप में प्रकृति का तथा चेतनरूप में पुरुष.का अर्थात् आत्मा का पुराणों में विस्तृत वर्णन है। आत्मा का जगत् में परिप्रमण अचेतन (कर्म = प्राकृतिक अर्थात् पौद्रलिक) विकार के कारण होता है। आत्मा के साथ कर्ममल को अनादि बताते हुए जैन दर्शन में यह कहा गया है कि आत्मा को अन्य किसी ने, किसी समय में कर्मबद्ध नहीं किया, वह तो पूर्व से ही कर्मबद्ध है तथा आगे से आगे बंधन की परंपरा निरंतर रहती है। बंधन भी आभासमात्र न होकर यथार्थ है। जैन दर्शन के इस मन्तव्य से पर्याप्त साम्य रखते हुए शिव पुराणकार का भी यही मत है कि आत्मा ही नहीं, आत्मा के साथ कर्ममल भी अनादि है। यही नहीं, इसे तर्कसहित प्रस्तुत किया गया है कि जिस प्रकार से बीज में उगने की शक्ति सहज रूप से होती है, वैसे ही आत्मा में कर्ममल भी अनादि से है अर्थात् जब से आत्मा है तभी से उसके साथ कर्म भी है। यदि आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादिकालीन नहीं है अर्थात् पहले आत्मा शुद्ध (निष्कर्म) था और बाद में कर्मबद्ध हुआ तो मुक्तात्माएं भी पुनः कर्मबद्ध हो जायेगे। अतः बीब में उगने की शक्ति के समान ही आत्मा की बद्धावस्था भी तभी से है, जब से वह है। जब आत्मा अनादि से है, तब उसके साथ कर्मों की अनादिता भी स्वतः सिद्ध है तथा जिस प्रकार से भुनने के बाद उगने की शक्ति समाप्त हो जाती है, वैसे ही शुद्धात्मा के भी कर्मों का अन्त हो जाता है, तब वह पुनः कर्मबद्ध नहीं होता। जीव संज्ञक आत्मा अनादि.से मलिन उपसंहार / 268

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