Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 274
________________ परमात्मा के दो रूप-साकार, निराकार जैनदर्शन में मुक्ति के दो रूप हैं-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष / भावमोक्ष की अवस्था के प्रतीक अरिहंत होते हैं जो साकार-सशरीरी होते हैं, उन्हें भाषकसिद्ध अर्थात् बोलने वाले उपदेश देने वाले सिद्ध भी कहा जाता है। द्रव्यमुक्त सिद्ध के होते है जो निराकार तथा अभाषक होते हैं। जो सर्व कार्य सिद्धकर, सर्व कर्म-कलंक से रहित निजात्म-स्वरूप सच्चिदानन्द (सत्-चित्-आनन्द) रूप पद को प्राप्त कर चुके हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं। इन्हें पौराणिक भाषा में जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त कहा गया है। साकार परमात्मा (अरिहन्त/जीवन्मुक्त) ____ अरि अर्थात् राग-द्वेषरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के कारण “अरिहन्त” कहलाते. हैं। सुरेन्द्र, नरेन्द्र आदि द्वारा पूजनीय होने से “अर्हन्त” और कर्माकुर को समूल नष्ट करने के कारण 'अरूहन्त” कहलाते हैं। छदस्थ अवस्था समाप्त होने पर यह अवस्था प्राप्त होती है। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण के नष्ट होने से वे सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी हो जाते हैं तथा अन्तराय कर्म का क्षय होने से अनन्त शक्तिमान होते हैं। उनके शेष चार अघाति कर्म रहते हैं, परन्तु वे शक्तिरहित होते हैं। जैसे भुना हुआ बीज अंकुर उत्पन्न नहीं कर सकता, उसी प्रकार ये कर्म अरिहन्त की आत्मा में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं कर सकते। आयु के अन्त में ये भी नष्ट हो जाते हैं।८ , अरिहंतों में तीर्थंकर भी आ जाते हैं। अरिहंतों के दो प्रकार हो सकते है-सामान्य केवली तथा तीर्थकर / घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान केवलदर्शन का उपार्जन दोनों ही करते हैं, वीतरागता एवं ज्ञान की दृष्टि से समान होते हुए भी अन्तर यह है कि तीर्थंकर स्वकल्याण के साथ परकल्याण की भी विशिष्ट योग्यता रखते हैं। वे जन्म से ही कुछ विलक्षण होते हैं, यथा-उनके शरीर पर एक हजार आठ लक्षण होते हैं तथा वे 8 महाप्रतिहार्य, 34 अतिशय, 35 वाणी के गुण इत्यादि अनेक विशेषताओं से युक्त होते हैं, जो सामान्य केवली में नहीं होती हैं। अरिहन्त को सदेहमुक्त, जीवन्मुक्त इत्यादि कई नामों से सम्बोधित किया है।" राग-द्वेष का सर्वथा अभाव (क्षय) हो जाने से वीतरागी अर्हत् सारे विश्व को, सर्वप्राणियों को आत्मवत् मानते हैं, किसी पर शत्रु-मित्र भाव न होने से पूर्ण समदर्शी होते हैं। जगत् की कोई भी लालसा उन्हें नहीं होती है। वे इन अठारह दोषों से मुक्त होते हैं-मिथ्यात्व, अज्ञान, मद, क्रोध, माया, लोभ, रति, अरति, निद्रा, शोक, अलीक (झूठ), चौर्य, मत्सरता, भय, हिंसा, प्रेम, क्रीड़ा एवं हास्य। पुराणों में उपर्युक्त वीतराग-अवस्था के समान ही एक अवस्था जीवन्मुक्त अवस्था मानी है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मवेत्ता परमार्थरूप से जीवन्मुक्त हो जाता ईश्वर की अवधारणा / 254

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