Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 270
________________ योगियों का ईश्वर सृष्टिकर्ता आदि गुणों वाला न होकर मुक्ति के लिए अवलम्बन मात्र है। मुक्त आत्मा ही योगमत का परमात्मा है। लोकमान्य तिलक ने “गीता-रहस्य" में स्पष्ट लिखा है-“सांख्यों को द्वैतवादी अर्थात् प्रकृति और पुरुष को अनादि मानने वाला कहते हैं। वे लोग प्रकृति और पुरुष के परे ईश्वर, काल, स्वभाव या अन्य मूल तत्त्व को नहीं मानते। इसका कारण यह है कि यदि ईश्वर सगुण है तब तो उनके मतानुसार वे प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं और यदि निर्गुण माने तो निर्गुण से सगुण पदार्थ कभी उत्पन्न नहीं होता। जैन दर्शन में जगत् को ईश्वरकृत नहीं माना है, क्योंकि विद्यमान पदार्थों का नाश नहीं हो सकता और असत् से सृष्टि निर्माण असम्भव है। डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं-ईश्वरवादी के समान विश्व के एक स्रष्टा बनाने की कोई आवश्यकता नहीं। हमें यह समझ में नहीं आ सकता कि किस प्रकार एक अनिर्माता ईश्वर अचानक और तुरन्त एक स्रष्टा बन सकता है, कैसे संसार की रचना की गयी-इन प्रश्नों का उत्तर देना कठिन होगा। संसार को बनाने से पूर्व वह किसी न किसी रूप में विद्यमान था या नहीं? यदि कहा जाये कि यह सब ईश्वर की अनालोच्य इच्छा के ऊपर निर्भर करता है तो हमें समस्त विज्ञान एवं दर्शन को ताक में रख देना पड़ेगा। यदि पदार्थों को ईश्वर की इच्छा के ही अनुकूल कार्य करना है तो पदार्थों के विशिष्ट गुणसम्पन्न होने का क्या कारण है? पदार्थों का विशिष्ट धर्म-सम्पन्न होना भी आवश्यक नहीं, यदि वे परस्पर परिवर्तित नहीं हो सकते। यदि ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ होता है तो जल जलाने का और अग्नि ठण्डक पहुँचाने का काम भी कर सकते थे। यथार्थ में भिन्न-भिन्न पदार्थों के अपने विशिष्ट व्यापार हैं, जो उनके अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल हैं और यदि उनके वे व्यापार विनष्ट हो जायें तो उन पदार्थों का भी विनाश हो जाएगा। यदि तर्क किया जाए तो प्रत्येक पदार्थ का एक निर्माता होना ही चाहिए, तो उस निर्माता के लिए एक अन्य निर्माता की आवश्यकता होगी और इस प्रकार हम निरन्तर पीछे चलते चलेंगे और इस परम्परा का कहीं भी अन्त न होगा। इससे बचने के लिए किसी एक प्राणी विशेष के लिए यह सम्भव हो सकता है कि उसे स्वयम्भू एवं नित्य मान लिया जाये तो क्यों नहीं अनेक पदार्थों एवं प्राणियों को ही स्वयम्भू एवं आधाररूप में स्वीकार कर लिया जाये?" ___ईश्वर कर्तृत्व का अनेक युक्तियों के आधार पर निराकरण करते हुए आचार्य विद्यानन्दि का कथन है . ईश्वर के कर्म का अभाव होने से इच्छा-शक्ति को मानना युक्त नहीं है। इच्छा अनभिव्यक्त है तो वह अज्ञप्राणी की तरह कार्योत्पत्ति में कारण नहीं हो सकती। ईश्वर की अवधारणा / 250

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