________________ 1. प्राकृत सर्ग-प्राकृत सर्ग अबुद्धिपूर्वक होता है अर्थात् उसकी सृष्टि नैसर्गिक रूप से होती है। यह तीन प्रकार का होता है ब्रह्मसर्ग, भूतसर्ग (पंचतन्मात्राएँ) तथा वैचारिक सर्ग (इन्द्रिय सम्बन्धी सृष्टि)। 2. वैकृत सर्ग-यह पाँच प्रकार का है—मुख्य सर्ग (स्थावर), तिर्यक् सर्ग (तिर्यंच योनिरूप), देवसर्ग, मानुष सर्ग तथा अनुग्रह सर्ग (सात्विक, तामसिक)। .. 3. प्राकृत-वैकृत-सर्ग-यह एक प्रकार का है—कौमार सर्ग।३७ प्रलय . भागवत पुराण में प्रलय के लिए निरोध शब्द का प्रयोग हुआ है। पुराणों में प्रलय चार प्रकार का बताया है नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्ध तथा प्राकृत / अन्यत्र द्विपराध को प्राकृत का पर्याय मानकर आत्यन्तिक नामक प्रलय का निदर्शन हुआ है। क्षुद्र प्रलय तथा दैनंदिन प्रलयों का भी उल्लेख मिलता है। 1. नित्य प्रलय-ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सभी प्राणी या पदार्थों के उत्पन्न होते रहने का नाम नित्य प्रलय है। 2. नैमित्तिक (क्षुद्र प्रलय)-इस प्रलय का समय ब्रह्मा की रात्रि होती है, इसे कालरात्रि भी कहा जाता है। इस समय ब्रह्मलोक से नीचे के समस्त लोक संकर्षण के मुख से उठी हुई अग्नि से ध्वस्त हो जाते हैं। . 3. प्राकृतिक प्रलय (द्विपरार्ध) –भागवत के अनुसार जब ब्रह्मा के शत वर्ष व्यतीत हो जाते हैं, तब मानवीय मान से उसकी द्विपराध की आयु समाप्त हो जाती है। उसी समय महत्तत्त्व, अहंकार, पंचतन्मात्रा-ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं, इसे प्राकृतिक प्रलय कहा गया है। 4. आत्यन्तिक प्रलय-आत्यन्तिक प्रलय तब होता है. जब जीव आत्मा की उपाधि रूप अहंकार को नष्ट कर अपने स्वरूप का साक्षात्कार प्राप्त कर लेता है।३८ इस प्रकार आत्यन्तिक प्रलय कैवल्यस्वरूप है। पुराणों में सर्ग नौ प्रकार का बताया है, जबकि जैनागमों में सम्पूर्ण जागतिक (सांसारिक) जीवों को प्रमुखतः दो भागों में विभक्त किया है-स्थावर एवं स / स्थावर के अन्तर्गत पृथ्वी, अप् (जल), तेजस् (अग्नि), वायु तथा वनस्पति शरीरगत जीव आते हैं, जिनके पास मात्र स्पर्शेन्द्रिय ही होती है। त्रस के अन्तर्गत द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रिय-स्पर्शन, रसना वाले),त्रीन्द्रिय (स्पर्श,रसना तथा घाणेन्द्रिय वाले), चतुरीन्द्रिय (स्पर्श, रसना, घ्राण तथा चक्षु इन्द्रिय वाले) तथा पंचेन्द्रिय (श्रोत्रेन्द्रिय सहित सम्पूर्ण पाँचों इन्द्रिय वाले)। अभिव्यक्ति की दृष्टि से ये अपने पूर्व-पूर्ववर्ती से अधिक जगत् - विचार / 236