________________ पुराणों में यह सिद्धान्त भी स्पष्टतः उपलब्ध होता है कि सृष्टि अनादिकाल से चली आ रही है, उसके नियन्त्रणकर्ता के रूप में जैन दर्शन के समान ही कर्म को कारण स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त विश्व के मूल में एक ही तत्त्व से सम्बन्धित वैदिक निष्ठा के स्थान पर पौराणिक मन्तव्य-प्रकृति तथा पुरुष को नित्य मानने से द्वैतवादी एवं इनको भी अनेक स्वीकार करने वाले बहुतत्त्ववादी हैं। यह मत जैनमत से पर्याप्त समानता रखता है, क्योंकि उसके अनुसार विश्व के मूल में कोई एक तत्त्व नहीं है, किन्तु वह तो नाना तत्त्वों का सम्मेलन है। जगत् की नित्यता को सैद्धान्तिकरूप से स्वीकृत करते हुए भी जैन दर्शन के समान उसकी परिवर्तनशीलता तथा जागतिक पदार्थों की अनित्यता भी पुराणों में निर्देशित है। जगत् को दुःखमय मानते हुए उसके प्रति वैराग्यपूर्ण दृष्टिकोण भी जैन दर्शन के तुल्य ही है। इसके अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण साम्य अग्रलिखित भी है। वैदिक संस्कृति में नाना प्रकार के इन्द्रादि देवों की कल्पना की गई थी। जिनका वर्ग मनुष्यवर्ग से भिन्न था तथा मनुष्यों के लिए आराध्य था। किन्तु उन देवों को जैन परंपरा में जगत् के कर्मबद्ध प्राणियों के अन्तर्गत ग्रहण किया है तथा मानववर्ग से पृथक होते हुए भी उनका वर्ग सब मनुष्यों के लिए आराध्य कोटि में नहीं है। मनुष्यदेव की पूजा भौतिक उन्नति के लिए भले ही कर ले, किन्तु आत्मिक उन्नति के लिए तो उससे कोई लाभ नहीं। अतएव ऐसे ही वीतराग व्यक्ति को जैन धर्म ने आराध्य बताया, जो देवों के भी आराध्य हैं। देव भी उस मनुष्य की सेवा करते हैं। यही आशय पुराणों का भी है। लगभग ऐसे ही पुराणों में देववर्ग को कर्मबद्ध तथा जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करने वाला बताया है। यही नहीं उनमें देवों के द्वारा, निर्लिप्त मनुष्यों की प्रशंसा भी की गई है। समस्त जगत् के प्राणियों में मनुष्य को श्रेष्ठ बताया गया है। सारांश यह है कि देव की नहीं, किन्तु मानव की प्रतिष्ठा बढ़ाने में पुराण जैनधर्म की तरह अग्रसर है। निष्कर्षत: जगत् के प्रति पुराण तथा जैनदर्शन के दृष्टिकोण में भौगोलिक, कालिक एवं परिवर्तन सम्बन्धी अनेक समानताएँ तथा असमानताएँ दिखाई देती हैं, परन्तु फिर भी यह मूल-मन्तव्य तो दोनों में समान ही है कि यह संसार (जगत्) अनादिकाल से है और अनन्तकाल तक रहेगा एवं आत्मा का इसमें भ्रमण कर्म-संस्कारों के कारण होता है। 000 जगत् - विचार / 242