Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 252
________________ एकशत पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र भरत ने पिता का राज्य सिंहासन प्राप्त किया और इन्हीं राजा भरत के नाम पर यह प्रदेश “अजनाभ” से परिवर्तित होकर “भारतवर्ष” कहलाने लगा। जो लोग दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर यह नामकरण मानते हैं, वे परम्परा के विरोधी होने से अप्रमाण हैं।३२ कालचक्र __ जगत का परिवर्तन काल के अनुसार होता है। जैनागमों में काल के मुख्यतः दो विभाग बताये हैं-अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी। जिस काल में जीवों की शक्ति, अवगाहना, आयु क्रमशः घटती जाती है, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है और जिस काल में इनमें क्रमशः वृद्धि होती जाती है, वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है / ' अवसर्पिणी काल के समाप्त होने पर उत्सर्पिणी काल आता है और उत्सर्पिणी काल के समाप्त होने पर अवसर्पिणी काल आता है। अनादिकाल से. यह क्रम चला आ रहा है और अनन्तकाल तक यह चलता रहेगा। इसी प्रकार से ह्रास एवं विकास की दृष्टि से पुराणों में भी अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी का वर्णन आया है।३३ / / जैन ग्रन्थों में अवसर्पिणी काल के अकर्मभूमि-कर्मभूमि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उस समय सुख का साम्राज्य होता है। तत्कालीन लोग सामाजिक, आर्थिक, राजकीय बंधनों से मुक्त तथा स्वयं अपने आपके राजा होते हैं। उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होती है। वे दिव्यरूप सम्पन्न, सौम्य, मृदुभाषी, अल्पपरिग्रही, शान्त, सरल होते हैं तथा क्रोध-मान-मद-मोह-मात्सर्य आदि अगुणों की अल्पता वाले होते हैं। मनुष्य-मनुष्यणी युगलरूप में ही जन्म लेते हैं। यह जोड़ा साथ ही रहता है। इनकी इच्छाएँ कल्पवृक्षों द्वारा पूर्ण होती हैं। आयु के अन्त में युगलिनी, पुत्र-पुत्री युगल को जन्म देती है। मृत्यु के समय एक को छींक और दूसरे को उबासी आती है। इस प्रकार की व्यवस्था होने से किसी भी प्रकार के व्यापारादि द्वारा आजीविका वहाँ नहीं होती है तथा जातिगत अन्तर भी नहीं होता है। किन्तु बाद में काल-स्वभाव के प्रभाव से कल्पवृक्षों द्वारा वस्तुओं की पूर्ति में कमी आने से मनुष्यों में परस्पर विवाद होता है, जिसको कुलकर मिटाते हैं / ये कुलकर अपने-अपने समय के प्रतापशील, विद्वान्, समाज के मर्यादा-पुरुष, समाज-व्यवस्थापक होते हैं। जब कल्पवृक्षों की फलदायी शक्तियों में क्षीणता आने से मनुष्य क्षुधा से पीड़ित एवं व्याकुल होने लगे, तब प्रथम तीर्थंकर मनुष्यों की इस दशा को देखकर दया भावना से, उनके प्राणों की रक्षा के लिए स्वभावतः उगे हुए चौबीस प्रकार के धान्यादि बतलाते हैं। कच्चा धान्य खाने से पेट दुखता है-यह जानकर अरणि-काष्ठ से अग्नि उत्पन्न की। कुम्भकार की स्थापना करके पकाने के लिए उसे बर्तन बनाना सिखलाते हैं। फिर चार कुल१.कोतवाल न्यायाधीश आदि का उपकुल, 2. गुरु, स्थानीय उच्चपुरुषों का भोगकुल, 3. मंत्रियों का राजकुल और 4. प्रजा का क्षत्रियकुल, 18 श्रेणियाँ (जात्तियाँ) और 18 जगत् - विचार / 232

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