________________ समुच्छिन्नक्रिया निवृत्ति शुक्लध्यान कहलाता है।३२ इनके अतिरिक्त प्रकारान्तर से ध्यान के पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत ये चार प्रकार भी हैं / 123 .. उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि पूर्वभूमिका सविषय होती है अर्थात् तत्त्वचिंतन आदि अवलम्बन पर आधारित होती है तथा अन्तिम रूप निर्विकल्प होता है, उसी को द्रव्यसंग्रहकार ने निश्चय ध्यान कहा है। तत्त्वानुशासनकार के अनुसार-एक अवलम्बन में चित्त को स्थिर करना ध्यान है। ज्ञान व्यग्र है तथा ध्यान एकाग्र होता है। द्वेषरहित, अपेक्षामय, यथार्थ अत्यन्त स्थिर और निश्चयनय से षट्कारकमय आत्मा ही ध्यान है।३५ उदाहरणार्थ-जो ध्याता है वह आत्मा कर्ता है, जिसको ध्याता है वह शुद्ध स्वरूप आत्मा कर्म है, जिसके द्वारा ध्याता है वह ध्यान परिणति रूप आत्मा करण है, जिसके लिए ध्यावा है वह शुद्ध स्वरूप के विकास के प्रयोजन रूप आत्मा सम्प्रदान है, जिस हेतु से ध्याता है वह सम्यग्दर्शनादि हेतुभूत अपादान है, तथा जिसमें स्थित होकर अपने अविकसित शुद्ध स्वरूप को ध्याता है वह आधारभूत अन्तरात्मा अधिकरण है। कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार ध्यान दो प्रकार के हैं 1. निश्चयात्मक ध्यानावस्था-शुद्ध आत्मचिंतन तथा 2. दूसरी वह अवस्था, जिसमें अपनी अक्षमता के कारण आत्मा का पुरुषाकार रूप में ध्यान किया जाता है। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है ध्यान का बहुत ज्यादा महत्त्व पुराण तथा जैन धर्म में है। बाह्य तप से स्वर्गादि की प्राप्ति सम्भव है; परन्तु शाश्वत सुख की प्राप्ति तो ध्यान से ही सम्भव है। ध्यानावस्था में आस्रवों का निरोध होकर संचित कर्मों का नाश होने लगता है। ध्यानाभ्यास के बिना बहुत से शास्रों का पठन और नानाविध आचारों का पालन व्यर्थ है।९३६ 8. समाधि-पतंजलि के अनुसार-वही ध्यान जब अर्थमात्र प्रतिभासित हो, तब समाधि कहलाता है।९३७ शिव पुराण के अनुसार यह योग की अन्तिम सीढ़ी है। समाधि से सर्वत्र प्रज्ञालोक (ऋतम्भरा प्रज्ञा) प्रवर्तित होता है। स्वरूपशून्यता ही समाधि का लक्षण है। समाधिस्थ योगी न कुछ सुनता है, न किसी वस्तु का आधाण करता है। वह न तो बोलता है और न देखता ही है।३८ उसे किसी स्पर्श का ज्ञान भी नहीं होता और न ही उसका मन संकल्प-विकल्प करता है। वह अभिमान. नहीं करता। उसकी स्थिति पूर्णरूप से काष्ठवत् होती है। वह एकदम स्तिमित (शांत) उदधि के समान होता है। जैसे निर्वात स्थान में रखा हुआ प्रदीप कभी भी स्पन्दित नहीं होता, उसी प्रकार समाधिनिष्ठ व्यक्ति भी उससे विचलित नहीं होता।३९ सर्वत्र केवल एकमात्र ध्येय ही है, ऐसा ध्यान करते हुए ध्येय में तन्मयता की दशा को प्राप्त 203 / पुराणों में जैन धर्म