________________ जगत् - विचार विश्व की गूढ़ रहस्यमयता को देखते हुए लोक के सम्बन्ध में वेदों में कहा गया है-“को ददर्श प्रथमं जायमानम्” अर्थात् “प्रथम जन्मते हुए जगत् को किसने देखा है अर्थात् किसी ने नहीं देखा। यह संसार कैसे उत्पन्न हुआ, इसको निश्चय से न किसी ने जाना है तथा न किसी ने कहा है। इस क्षणभंगुर संसाररूपी अश्वत्थ वृक्ष को अव्यय (नित्य) कहते हैं। सृष्टि की निरन्तरता के बारे में पुराणों की भी सहमति है। इससे यह तो पूर्णरूप से स्पष्ट होता है कि यह जगत् नित्य है तथा. जगत् नित्य होने से उसके निर्माण की तथा निर्माता की अवधारणा अनावश्यक है। जैन दर्शन का भी यही मन्तव्य है। * जगत् का बहुत विस्तृत वर्णन जैन तथा पुराणसाहित्य में किया गया है। जैन दर्शन में जगत् के परिवर्तनों, परिवर्तन के कारणों एवं क्रम आदि का पर्याप्त विवेचन हुआ है। पुराणों में भी प्रमुख पंचलक्षणों में जगत् के रूप (सृष्टि तथा प्रलय) भी आते हैं। वैष्णव पुराणों में सृष्टि-वर्णन सम्बन्धी विशेषताओं का उल्लेख करते हुए पं. बलदेव उपाध्याय लिखते हैं कि “वैष्णव पुराणों का सृष्टि वर्णन सांख्य दर्शन से विशेष प्रभावित है, लेकिन जहाँ. सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी है वहाँ वैष्णव, सांख्य निरीश्वर न होकर सेश्वर दर्शन है। सांख्य दर्शन एवं जैन दर्शन के जगत् सम्बन्धी दृष्टिकोणं में बहुत सा साम्य है। यद्यपि पुराणों में तथा जैन दर्शन में वर्णित जगत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण में अनेक महत्त्वपूर्ण अन्तर है, फिर भी कई अन्य समानताएँ भी दृष्टिगत होती हैं, जो अग्रलिखित हैं। जगत् की यथार्थता जगत् की सत्ता के सन्दर्भ में जैनमत एवं पुराणमत दोनों यथार्थवाद को स्वीकृत करते हैं। जिस प्रकार से जैन दर्शन में जगत् को आभास मात्र न मानकर यथार्थ स्वीकार किया है-अचेतन तत्त्व (भौतिक सृष्टि या अजीव द्रव्य) भी उतना ही सत्य है जितना कि चेतन तत्त्व सत्य है; उसी प्रकार विष्णु पुराण में भी उसको यथार्थतः नित्य और अक्षर बताया है। पुरुष (चेतन) के समान ही प्रकृति (जड़) की जगत् - विचार / 220