________________ लगभग इसी प्रकार का दृष्टिकोण पुराणों का भी जगत् के प्रति है। पुराणों के अनुसार वस्तुतः जगत् में दुःख ही है, मात्र अज्ञानावस्था के कारण उन दुःखों में सुखाभास होता है। पद्मपुराणकार ने संसार की सागर से तुलना करते हुए उसकी भयंकरता वर्णित की है-इस सागर (घोर कलिकाल का महासागर) में विविध प्रकार के विषयों में जो डुबकियाँ लगती रहती हैं, ये ही इस समुद्र के आवर्त (भँवरे) हैं और दुर्गन्ध ही इसमें फैला करती है, जिससे प्राणी का मन घिरा रहता है। अत्यन्त दुष्ट प्रकृतिवाले मनुष्य ही इस संसार-सागर में व्याप्त हैं, जिनसे यह महान् भीम और अत्यन्त भयानक है।२ . विष्णुपुराण में राजा मुचुकुन्द श्रीकृष्ण से सांसारिक दुःखों का वर्णन करते हुए कहता है'३–“हे भगवान् ! तीनों तापों से अभिभूत हुआ मैं सदा ही इस संसार- चक्र में घूमता रहा हूँ, मुझे कभी भी शान्ति नहीं मिली। जल की आशा वाली मृग-तृष्णा के समान ही मैंने दुःखों को सुख माना था, परन्तु उन सबसे मुझे सन्ताप ही हुआ है। राज्य, पृथिवी, सेना, कोष, मित्र, पुत्र, स्री, भृत्य और शब्दादि विषयों को अविनाशी और सुख मानकर ग्रहण किया था, परन्तु अन्त में वे सभी वस्तुएँ दुःखरूप सिद्ध हुईं।” जगत् के दुःखों के भेदों का वर्णन करते हुए पराशरजी का कथन है-आध्यात्मिक ताप के शारीरिक और मानसिक दो भेद हैं, उनमें शारीरिक के भी अनेक भेद हैं, उन्हें सुनो। शिरोरोग, ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म, शोथ, श्वास, नेत्ररोग, अतिसार आदि के भेद से शारीरिक दुःख अनेक प्रकार का है। काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद, शोक, असूया, अपमान, ईर्ष्या, मात्सर्य आदि के भेद से मानसिक ताप भी बहुत प्रकार का है। मृग, पक्षी, मनुष्य, पिशाच, सर्प, राक्षस, सरीसृप आदि से प्राप्त होने वाले दुःख को आधिभौतिक कहते हैं। शीत, वात, उष्ण, जल, विद्युत् आदि से मिलने वाला दुःख आधिदैविक है। इन दुःखों के अतिरिक्त गर्भ, जन्म, जरा, अज्ञान, मृत्यु तथा नरक से उत्पन्न दुःख भी सहस्रों प्रकार के हैं। व्यक्ति जब तक जीवित रहता है, तब तक अनेक कष्टों से उसी प्रकार से घिरा रहता है, जैसे तन्तुओं में कपास का बीज। मनुष्यों की प्रिय वस्तुएँ उनके लिए दुःखरूपी वृक्ष का बीज बन जाती हैं। स्री, पुत्र, मित्र, धन, घर, खेत, धान्यादि से जितने दुःख की प्राप्ति होती है, उतना सुख नहीं मिलता। इस प्रकार संसार के दुःखरूपी सूर्य के ताप से संतप्त हुए पुरुषों को मोक्षरूपी वृक्ष की छाया के अतिरिक्त अन्य किस स्थान पर सुख की प्राप्ति होगी? क्योंकि केवल नरक में ही दुःख नहीं है, स्वर्ग में भी वहाँ से नीचे गिरने की आशंका से जीव को सदा अशान्ति ही रहती है। कभी गर्भ में ही मर जाना अथवा कभी उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त होना पड़ता है। जिसने जन्म लिया है, वह बालकपन में, युवा होने पर, मध्यम आयु अथवा वृद्धावस्था को प्राप्त होकर अवश्य ही मृत्यु. को प्राप्त होता है। 223 / पुराणों में जैन धर्म