________________ लोभ में कभी भी नहीं पड़े। जो योगी इनको तृणवत् समझकर इनका परित्याग कर देता है, वही परायोग की सिद्धि को प्राप्त करता है। पूर्ववर्णित योगविघ्नों के समान ही जैनागमों में भी साधना-मार्ग में आने वाले विघ्नों का वर्णन किया गया है। जिनमें प्रारम्भिक बाधाएँ हैं१. मोह 2. क्षयोपशम का अभाव 3. अस्वस्थता 4. स्तम्भ 5. मिथ्यात्व 6. अविरति 7. प्रमाद 8. कषाय 9. शरीर, वाणी और मन की चंचलता 10. आलस्य 11. अविनय और 12. विकृति-प्रतिबद्धता-रसलोलुपता, अश्रद्धा / 48 योगी को इन 22 परिषहों पर भी विजय प्राप्तव्य है-क्षुधा, पिपासा, शीत, ऊष्ण, दंशमशक, अचेल, अरति, स्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा; अज्ञान और अदर्शन। . उपसर्गों का विवेचन करते हुए उसके तीन प्रकार बताये हैं—देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यन्वकृत / उपसर्ग अनुकूल भी होते हैं तथा प्रतिकूल भी होते हैं। साधना करते हुए योगी को अनेक प्रकार चमत्कारिक शक्तियों की प्राप्ति होती है, परन्तु जो साधक उनके व्यामोह में नहीं पड़ता, वही अपने ध्येय को प्राप्त करता है तथा जो इनमें आसक्त हो जाता है वह अपने लक्ष्य से च्युत होकर पुनः संसार-प्रमण करता है। इसीलिए योगियों के लिए यह निर्देश दिया गया है कि वे तप, ध्यान का अनुष्ठान किसी लाभ, यश या कीर्ति, लब्धियाँ प्राप्त करने की इच्छा से न करें। भगवती सूत्र में इस प्रकार की लब्धियों का वर्णन प्राप्त होता है।५१ हेमचन्द्राचार्य ने भी कई लब्धियों का वर्णन किया है। यथा-कफ-मूत्र-मल-अमर्श और सर्वोषध ऋद्धियाँ तथा संभिन्न श्रोतोपलब्धि (एक ही इन्द्रिय सभी इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करने लगती है), चारणलब्धि (उड़ने की शक्ति), आशीविष लब्धि (शापानुग्रह की शक्ति), अवधिज्ञानलब्धि (इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना, रूपी द्रव्यों को नियत सीमा में जानने वाला ज्ञान), मनः पर्ययलब्धि (संज्ञी जीवों के मनों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान)।५२ साधक को ये चमत्कार सहज होते हैं। वस्तुतः “चमत्कार आत्मा में है, शब्दों में नहीं। आत्मा का चमत्कार स्थायी है, शब्दों का अस्थायी / 153 जिनका आत्मा मोह, मत्सर एवं विषयाभिलाषा के मैल से मुक्त होकर जितना पवित्र, निर्मल और परमात्मलीन होगा, उतना ही उनके शब्दों में चमत्कार आ बसेगा। इसके विपरीत विशेष आचार / 206