________________ हो जाता है, उसे योग की अन्तिम अवस्था समाधि कहते हैं। जब योग के स्वामी का मन, संकल्प से रहित हो जाता है और इन्द्रियों के विषयों का चिंतन बिल्कुल भी नहीं करता तथा जिसका मन ब्रह्म में भली-भांति लीन होता है, उसी दशा को समाधिस्थता कहा जाता है।४० __समाधि में स्वस्थता (स्व में ही केन्द्रित होना-स्थिर होना) का जैनागमों में भी वर्णन प्राप्त होता है। आचारांगसूत्र में बाह्य जगत्-से अन्तर्जगत् की ओर प्रवेश करना तथा चित्त-स्वस्थता एवं अनशन अर्थ में समाधि शब्द प्रयुक्त है।४१ सूत्रकृतांग में अध्यात्मरमण, सन्मार्ग का सम्यक् आचरण, रत्नत्रयी की पर्युपासना, श्रद्धा का स्थिरीकरण, आर्जवधर्म की अर्चना, वाणी का संवरण, असत् की निवृत्ति, संवर धर्म में अनाकुलत्व आदि अनेक परिभाषाएँ समाधि के लिए दी गई हैं / 2 मुख्यतः समाधि शब्द का व्यवहार-रागादि का अभाव, समता आदि के लिए किया गया है। साधक की चर्या में आने वाले उपसर्गों की विभीषिका में अनाकुल रहना तथा दुर्मनस्कता एवं विमनस्कता का अभाव समाधि है। आचार्य समन्तभद्र ने समाधि, सातिशय ध्यान एवं शुक्लध्यान को एकार्थक माना है / 1431 वस्तुतः समाधि का महत्त्व आठों अंगों में सर्वाधिक है, क्योंकि अष्टांगों का अन्तिम निष्कर्ष समाधि में ही प्राप्त होता है। , योगविन ___ “श्रेयांसि बहुविघ्नानि” इस प्रचलित उक्ति के अनुसार योग भी सर्वश्रेष्ठ कार्य होने से योगी को कई विघ्नों को पार करते हुए योगसाधना करनी पड़ती है। न केवल प्रतिकूल बाधाएँ, बल्कि अनुकूल बाधाओं का भी वर्णन पुराण तथा जैनधर्म में उपलब्ध होता है; जिनमें यदि योगी उलझ जाएँ (चमत्कृत हो जाएँ, तो वह आगे नहीं बढ़ सकता है। पुराणों में योगगत सामान्य विघ्न अग्रलिखित बताये गये हैं—आलस्य दैहिक एवं चित्त सम्बन्धी विविध होता है, तीव्र व्याधियाँ (धातु-वात-पित्त-कफ के वैषम्य से तथा कर्मदोष से उत्पन्न होती हैं), प्रमाद (योग साधना के उपायों का उपयोग न करना प्रमाद है), स्थानसंशय (ध्येय के विषय में संशय होना), अनवस्थिचित्तत्त्व (मन की अप्रतिष्ठा), अश्रद्धा (योगमार्ग में भावरहित वृत्ति ही अश्रद्धा है), प्रान्तिदर्शन (विपर्यस्त मति का नाम ही प्रान्ति है), दुःख (अज्ञान से उत्पन्न होने वाला चित्त सम्बन्धी दुःख आध्यात्मिक दुःख कहा गया है। पुराकृत कर्मों के परिणामस्वरूप शारीरिक दुःख, आधिभौतिक दुःख तथा वज्र अग्नि एवं विषादि से उत्पन्न होने वाला दुःख आधिदैविक दुःख कहा गया है), दौर्मनस्य (इच्छा के विघात से उत्पन्न होने वाला क्षोभ), विषयों की ओर आकर्षण-ये दस योगाभ्यासी के लिए अन्तराय कहे गये हैं / 1432 . विशेष आचार / 204