________________ भी गृहस्थ की कोटि में ही गिना जाता है। इसी प्रकार वानप्रस्थ भी यद्यपि गृहत्याग कर अरण्य की शरण ग्रहण करता है तथापि वह यति या प्रवजित नहीं कहलाता। सारांशत: गृहस्थधर्म के तारताम्यानुसार कई प्रकार हो सकते हैं। गृहस्थ के इन आचारों के अतिरिक्त सामान्य आचार जो सभी आश्रमों के लिए आवश्यक हैं-सेवा, सन्तोष, भक्ति आदि भी गृहस्थ के लिए आदरणीय गुण हैं। पुराण एवं जैन धर्म के गृहस्थाचारों में अन्तर यही है कि पुराणों में वर्णित यज्ञ-श्रद्धादि कर्मों का जैन श्रावक के लिए विधान नहीं है। इसके अतिरिक्त अपने पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्तरदायित्व सम्बन्धी कर्तव्यों का पालन करते हुए पुराणों के समान ही लौकिक विधियाँ, क्रिया-कलाप, जो समीचीन विश्वास या सदाचार का विर्घात न करें, जैन परंपरा के लिए निषिद्ध नहीं हैं-सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधि:यत्र सम्यक्त्व हानिनॊ यत्र नो व्रत दूषणम् / श्रमण धर्म श्रमण संस्कृति __ श्रमण संस्कृति-भारतीय संस्कृतियों में प्रसिद्ध संस्कृति है। प्रचलित श्रमण संस्कृतियों के अतिरिक्त वैदिक संस्कृति में भी श्रमण संस्कृति के स्वर उपलब्ध होते हैं। वैदिक संस्कृति में उपलब्ध इस श्रमण संस्कृति के मूल स्रोत के सम्बन्ध में विभिन्न मन्तव्य हैं। जैन परंपरा के अनुसार “ऋषभदेव के पौत्र मरीची पहले उनके पास श्रमण बने, किन्तु बाद में अलग होकर परिव्राजक मत की स्थापना की। इन्हीं के शिष्य कपिल महामुनि हुए, जो सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हुए। हो सकता है मरीचि और कपिल मुनि ही प्राचीनतम वैदिक श्रमण रहे हों।" वैदिक विद्वान स्वाभाविक रूप से वैदिक श्रमणों का प्रारम्भ वेदों में खोजते हैं। उनके अनुसार वैदिक युग में दो समानान्तर संस्कृतियाँ विद्यमान थीं 1. ऐन्द्री संस्कृति 2. वारुणी संस्कृति ऐन्द्री संस्कृति प्रवृत्तिमार्गी, यज्ञों को प्रोत्साहन देने वाली, युद्धों की, माँसाहार की, स्वर्ग की तथा भोग की समर्थक थी। इन्द्र उसके मुख्य देव थे। वारुणी अथवा श्रमण (मुनि) संस्कृति निवृत्तिमार्गी, व्रतों को महत्त्व देने वाली, अहिंसा, निरामिष आहार, योग, मोक्ष तथा ज्ञानमार्ग की समर्थक थी-वरुण इसके मुख्य देव थे। बाद में वरुण का महत्त्व वैदिक संस्कृति में कम होता गया और इन्द्र का महत्त्व बढ़ गया। फलत: वैदिक संस्कृति का रूप प्रवृत्तिप्रधान रह गया।८ इस मूल स्रोत के सम्बन्ध में विभिन्न मत हो सकते हैं, परन्तु यह तो सुनिश्चित है कि निवृत्तिवादी विचारधाराएँ वैदिक साहित्य में भी दृष्टिगोचर होती हैं। विशेष आचार / 188