________________ निवृत्तिवादी विचारधाराएँ श्रमण संस्कृति के लिए तो यह प्रसिद्ध है कि वह निवृत्ति-प्रधान है; क्योंकि श्रमण (संन्यासी) का जीवन ही कर्म-निवृत्ति के लिए होता है। उसकी प्रवृत्तियों में भी निवृत्ति समाहित होती है। संन्यास के लिए निवृत्ति की महती आवश्यकता पुराणों में भी प्रतिपादित की गई है, जो जैन दर्शन के समान ही है। जिस प्रकार जैन दर्शन में प्रवृत्ति मार्ग (वेद विहित कर्मकाण्डों) का विरोध किया गया है, उसी प्रकार पौराणिक विचारधारा में भी निवृत्ति मार्ग द्वारा ही मुक्ति की प्राप्ति मानी है। तद्नुसार शास्त्र दो प्रकार के मार्ग दिखलाते हैं-एक प्रवृत्ति मार्ग तथा दूसरा निवृत्ति मार्ग। पहला जो प्रवृत्ति मार्ग है, वह दुःख का रास्ता है, परन्तु जीव क्लेश में ही सुख मानकर पहले उसी पर चलते हैं। यह मार्ग स्वच्छन्द, प्रसन्नतापूर्वक, विरोध-शून्य एवं आपात मधुर होने पर भी परिणाम में नाश का बीज तथा जन्म, मृत्यु और जरा के चक्कर में डालने वाला है।२९ जो निवृत्ति के सुन्दर मार्ग पर स्थित है, वह अपने आत्मा में ही रमण करता-आनन्द मनाता है। प्रवृत्ति कर्म से (व्यक्ति) जन्म-मरण पाता है तथा निवृत्ति कर्म से मुक्त हो जाता है। मुक्ति का उद्देश्य जिसका हो ऐसे मनुष्य को शुभ तथा अशुभकर्म दोनों को क्षीण करना आवश्यक है। जब तक शुभ या अशुभकर्म रहेंगे, तब तक वह बद्ध ही रहेगा।३२ जब तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है, तब तक सब कर्मों का शरीर और मन द्वारा आत्मा से बंध होता रहता है। संन्यास या श्रमण का अर्थ एवं अन्य पर्याय जैसे वैदिक संस्कृति में प्रमुखतः प्रचलित शब्द है संन्यासी। उसी प्रकार जैन धर्म में मुख्यतः श्रमण प्रचलित है। इसके प्रमुख पर्याय पुराणानुसार ऋषि, मुनि, भिक्षु, तापस, परिव्राजक आदि हैं तथा जैन साहित्यानुसार श्रमण, ऋषि, मुनि, यति, भिक्षु, तापस, संयत, व्रती, अणगार, निर्ग्रन्थ इत्यादि कई पर्यायवाची नाम हैं। पुराणों में संन्यास शब्द का अर्थ व्युत्पत्ति के अनुसार इस प्रकार है-“समन्ताद् न्यासः” या “सम्यक् प्रकारेण न्यास” अर्थात् इस आश्रम में व्यक्ति समस्त बन्धनों से मुक्त होकर सर्वतन्त्र स्वतन्त्ररूप से विचरण करता है।३३ जैन धर्म में श्रमण शब्द के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ अग्रलिखित बताये गये हैं इसकी अर्धमागधी तथा प्राकृत छाया है “समण"। तथा संस्कृत छाया “शमन,” "श्रमण,” समन है। अतः प्रमुखतः चार प्रकार से इसकी व्याख्या हो सकती है 1. शमन जो क्रोधादि कषायों का शमन करे, वह शमन कहलाता है। 2. श्रमण-जो पंचेन्द्रियों और मन को वश में करता है, जो संसार के विषयों से खिन्न होता है और तपस्या करता है, वह श्रमण कहलाता है। 189 / पुराणों में जैन धर्म