Book Title: Puranome Jain Dharm
Author(s): Charanprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 217
________________ ब्राह्मण-भोज कराकर भी अन्धकार से नहीं बचा जा सकता। पत्नी-पुत्र भी दुर्गति से नहीं बच सकते-ऐसी स्थिति में कौन इनका अनुमोदन करेगा? आप पुत्रोत्पत्ति के उपरांत प्रव्रज्या का परामर्श देते हैं किन्तु कौन निर्णय दे सकता है कि तब तक यह जीवन कायम रहेगा ही? कल का तो क्या, पल का भी भरोसा नहीं। आप लम्बे भविष्यत् की योजना प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में मौत के साथ जिसकी मित्रता स्थापित हो चुकी हो या जो मृत्यु से बच सकता हो या जिससे मरने का परिज्ञान हो चुका हो, वही कल परं अवलम्बित रह सकता है। जो श्रेयस्कर और कर्तव्य है, वह आज अकर्तव्य कैसे हो सकता है? पूर्ववर्णित (कूर्मपुराण) के समान जैन धर्म का भी यही मन्तव्य है कि जब भी विरक्ति की भावना जागृत हो जाये तभी श्रमणधर्म अंगीकार कर लेना चाहिए एवं समयमात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।' प्रयोजन तथा महत्त्व संन्यास का तात्त्विक अर्थ श्रीकृष्ण के अनुसार “कामना से उत्पन्न हुए कर्मों का त्याग है। हरिवंश पुराण में भी संन्यासियों को “विकांक्षिणः” कह यही बात पुष्ट की गई है। जैन धर्म में भी श्रामण्य के पूर्व यही आवश्यकता बताई है कि जो मनुष्य अपनी कामनाओं को निवारित नहीं करता, वह श्रामण्य का पालन नहीं कर सकता।९३ तात्पर्य यही है श्रमण बनने अथवा संन्यास अंगीकरण का प्रयोजन कुछ प्राप्त करना न होकर, जो कर्मबंधन है उनसे छूटना, मुक्त होना अर्थात् आत्मशुद्धि ही है। . संन्यास की गौरव-गरिमा अबीत काल से चली आ रही है। श्रमण तथा ब्राह्मण दोनों ही परंपराओं में वह शीर्षस्थ स्थान पर आसीन रहा है। वैदिक संस्कृति में तो उसे दो हाथों वाला साक्षात् परमेश्वर माना है-“द्विभुजः परमेश्वरः” तथा जैन परम्परा में भी श्रमण एक प्रमुख तीर्थस्वरूप, पूज्य तथा परमेष्ठी माना गया है। संन्यास का प्रमुख लक्ष्य निःश्रेयस (मुक्ति) प्राप्त करना ही है। हरिवंश पुराण में संन्यासी के विषय में कहा गया है कि वे सब शुद्ध हृदय वाले यति हैं। इनका अन्तःकरण ज्ञान की ज्योति से प्रकाशित है। इन्होंने ज्ञानाग्नि द्वारा अपनी सम्पूर्ण कर्म-राशि जला डाली है। ये अब अपने प्राणों का ही प्राणरूप अग्नि में हवन करते हैं।" कर्मों के शुभाशुभ फलों को भोगने हेतु ही जन्म एवं मरण होता है। यदि कर्मराशि ही न रहे तो. जन्म-मरण का प्रश्न ही नहीं रहता। संन्यासी केवल जीवन-निर्वाह के कर्म ही अनासक्त भाव से करता है। अन्य सभी सकाम कर्मों का वह त्याग कर देता है अतः जन्म-मरण के चक्र से छूटकर ब्रह्म में लीन हो जाता है। चारों पुरुषार्थों में मोक्ष को सर्वश्रेष्ठ तथा जीवन का परमलक्ष्य माना गया है। मोक्ष प्राप्त कराने वाला होने से ही संन्यास को चारों आश्रमों में श्रेष्ठ बताया गया है।९५ . .. 197 / पुराणों में जैन धर्म

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