________________ विष्णु पुराण में-ध्रुव को साधना-पथ से विचलित करने के लिए यही शिक्षा दी गई थी कि तूं अभी खेल-कूद, फिर अध्ययन करके भोग भोगकर अन्त में तप करना, किन्तु पुराणकार ने उसका विरोध करते हुए लिखा है कि मूर्ख मनुष्य बाल्यावस्था में खेलते-कूदते हैं, यौवनावस्था में विषयों में फंसे रहते हैं, वृद्धावस्था में असमर्थ हो जाते हैं। अतः विवेकी मनुष्य को अवस्था का विचार न करके आत्मकल्याण में लग जाना चाहिए। महाभारत के समान ही मार्कण्डेय पुराण में पिता (भार्गव) पुत्र (सुमति) संवाद का भी यही सारांश है कि-"भार्गव ने सुमति को समझाया कि पहले वेद पढ़ो, गुरु सुश्रुषा में संलग्न रहो, गृहस्थ बनो, यज्ञ करो, संतानोत्पत्ति करो, वनवासी बनो, फिर परिव्राजक बनकर ब्रह्म प्राप्ति करो।” सुमति ने तत्काल उत्तर देते हुए कहा कि-ऐसा अभ्यास मैं बहुत बार कर चुका हूँ। मुझे मेरे पूर्वजन्मों की स्मृति हो रही है, ज्ञानबोध हो गया है। मुझे वेदों से कोई प्रयोजन नहीं है। मेरे अनेक माता-पिता हुए हैं। ....सांसारिक-परिवर्तन के लम्बे वर्णन के बाद उसने कहा-“संसार-चक्र में भ्रमण करते-करते मुझे अब मोक्ष प्राप्ति कराने वाला ज्ञान मिल गया है। उसे जान लेने पर यह सारा ऋग, यजुः और सामसंहिता का क्रिया-कलाप मुझे विगुण-सा लग रहा है, सम्यग प्रतिभासित नहीं हो रहा है। मैं गुरु-विज्ञान से तप्त और निरीह (निरभिलाषी) हो गया हूँ। वेदों से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। मैं किंपाक-फल के समान इस अधर्माढ्य-त्रयीधर्म (ऋग्-यजु-सामधर्म) को छोड़कर परमपद की प्राप्ति के लिए जाऊँगा।..मुझे जो ज्ञान हुआ है, वह त्रयीधर्म का आश्रय लेने वाले नहीं पा सकते।८७ प्रस्तुत आख्यान के सम्बन्ध में विंटरनिट्ज, का अभिमत है कि “मार्कण्डेय पुराण में आया हुआ यह संवाद बहुत कुछ सम्भव है कि बौद्ध या जैन परंपरा का रहा हो। उसके पश्चात् महाकाव्य या पौराणिक साहित्य में सम्मिलित कर लिया गया हो। मुझे ऐसा प्रतीत होता है-यह बहुत प्राचीनकाल में प्रचलित श्रमणसाहित्य का अंश रहा होगा और उसी से जैन, बौद्ध महाकाव्यकारों और पुराणकारों ने ग्रहण कर लिया होगा।" इसी आख्यान से बहुत ज्यादा साम्य रखने वाला एक आख्यान जैनागम उत्तराध्ययन में भी है जिसका संक्षिप्त रूप प्रस्तुत है उसुयार नगर के पुरोहित के दो पुत्र विरक्त होकर श्रमण बनने की पिता से अनुमति माँगते हैं। वैदिक धर्म का पंडित पुरोहित कहता है-सर्वप्रथम वेदाध्ययन करो, ब्राह्मणभोज करो, स्रियों के साथ भोग भोगो, पुत्रोत्पत्ति के उपरांत उसे अपना उत्तराधिकारी बनाकर पहले आरण्यक (वानप्रस्थ) को और फिर मुनिधर्म को अंगीकार करना, क्योंकि वेदवेत्ताओं के वचन हैं कि पुत्रहीन को शुभगति प्राप्त नहीं होती। पुरोहित पुत्र उत्तर देते हैं वेदाध्ययन कर लेने से मनुष्य का त्राण नहीं हो सकता, विशेष आचार / 196